Saturday 7 December 2013

"आप" का अरविन्द

कल चुनाव के नतीजे आने वाले है तथाकथित सेमी-फाइनल  के पोस्ट पोल सर्वे में बीजेपी को उनके उम्मीद के मुताबिक सफलता जरुर मिली है, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को लेकर बीजेपी आश्वस्त जरुर है और हमेशा कि तरह राजस्थान कि जनता हर चुनाव में अपने इतिहास को दोहराती आयी है इसलिए वसुंधरा राजे सिंधिया भी इस बार मुख्यमंत्री बन जाएँगी ऐसा लगता है, मिजोरम का हाल बहुत बुरा है सारे  सर्वे में मीडिया मिजोरम को हमेशा चीन में ही पाती  है इसलिए अगर मीडिया के चश्मे  से देखे तो ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी मिजोरम में अपनी सरकार बना ले देश कि राजनीती एवं राजनीतिक बिरादरी को पोषित करने वालो  को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।  सबसे दिलचस्प नतीजे दिल्ली के होंगे।

साल भर पहले दिल्ली में शीला जी अपनी सरकार  चलाने  में व्यस्त थी, बीजेपी कि तरफ से विजय गोयल साहब अपने आप को दिल्ली का अगला मुख्यमंत्री मान  कर बैठे थे , उसी समय उसी दिल्ली के रामलीला मैदान में एक आदमी अपनी अलग पार्टी बनायीं जिससे उसका दवा था कि कि वो भ्रस्टाचार को मिटा देगा और सभी ने उसे बहुत हलके में ले लिया था, यहाँ तक कि देश कि मीडिया ने भी उसे और उसकी "आम आदमी पार्टी " को सिरे से ख़ारिज कर दिया था वहि अरविन्द केजरीवाल आज दिल्ली कि राजनीति में सबसे बड़ा भूचाल लाने  के लिया तैयार बैठा है।  कल के नतीजे चाहे कुछ भी हो अरविन्द हारे या अरविन्द जीते लेकिन कल से दिल्ली में अरविन्द नाम का हवा जरुर बहेगी, आगे से भले ही लोग हर नए राजनीति में आने वाले को लोग अरविन्द के नाम से चिढ़ाये लेकिन उसने अपने और अपने कुछ हजार साथियो के दम पर दिल्ली में बदलाव तो अभी से ही कर दिए है, मसलन आज सबको पता है शीला कि वापसी संकट में है  और विजय गोयल का कुछ अता-पता नहीं।

एक दौर गांधी का था, एक दौर जेपी का था ,एक दौर वाजपेई का था आज का दौर भले मोदी का हो सकता हो बावजूद इसके अरविन्द का है इसमें कोई शक नहीं है, अरविन्द कोई आम नेता नहीं है और न ही हो सकते है क्युकी चुनाव के दिन ये कहना "आप वोट किसी को भी दो मगर वोट जरुर दो " ऐसा कहना अपने आप में बहुत कुछ साबित करता है और इनको बाकियो से अलग करता है।

राजनीति में ये कहा जाता है कि पहला चुनाव हारने के लिए होता है दूसरा हरवाने के लिए और फिर तीसरा जीतने के लिए मगर अरविन्द और उनकी पार्टी अपने पहले चुनाव में दूसरे पायदान पे पहुँच  गयी है यही उनकी क़ाबलियत है और हो न हो यही उनकी जीत भी है , अन्ना आंदोलन के बाद नयी नयी पार्टी बनी थी जिसके नाम पे हसते हुए हमारे  दिग्गी दादा ने अंग्रेजी में mental  bankruptcy कहा था आज वही पार्टी उनकी पार्टी के परखच्चे उड़ा  रही है,  मैंने सुना था एक बार जब योगेन्द्र यादव  जो "आप" के नेता है उन्होंने कहा था कि उन्होंने और उनकी पार्टी ने कैसे नयी पार्टी में जान डाली हर मोहल्ले हर गली में जेन के बाद आज आलम ये है कि हर आदमी राजनीती में सफाई चाहता है और वो दिन दूर नहीं जब सफाई वो झाड़ू से चाहेगा आशा करता अरविन्द तक न सही आप सब तक जरुर मेरी ये बात पहुँचे  आगे मै  उन्हें और उनकी पार्टी को बधाई देता हूँ नतीजे चाहे जो भी आये मेरा आशावादी रुख कायम रहेगा।

अंशुमान श्रीवास्तव

Saturday 23 November 2013

नामलीला या रामलीला

साहित्य और सिनेमा भारतीय संस्कृति कि वो धराये है जो गाहेबगाहे हम सब के सम्मुख हमारी ख़त्म हो  चुकि संस्कृति को हमारे सामने लाने का काम करती है, समाज के इन दोनों अंगो में अगर राजनीति घुस जाये  तब निश्चित ही हमारा आने वाला भविष्य संकट में है ,आज के सामाजिक परिवेश में निश्चित ही इन दोनों में राजनीति अपनी अमिट  छाप छोड़ रही है।

हाल में रिलीज़ हुई संजय लीला भंसाली कि एक प्रेम प्रसंगयुक्त फ़िल्म राम-लीला को देश के कुछ हिस्सो में रिलीज़ होने से रोक देना इसी बात का प्रमाण है, फ़िल्म को देखने के बाद कहीं भी ऐसा नहीं लगा जिससे किसी खास सम्प्रदाए और धर्म को हानि पहुँचती हो, वैसे न्यायमूर्ति देवी प्रसाद सिंह और अशोक पाल सिंह की लखनऊ बेंच ने सुनवाई करते हुए मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान रामलीला समिति, बहराइच द्वारा दायर एक याचिका पर इस फिल्म पर प्रतिबंध लगाने का आदेश पारित किया, वैसे याचिकाकर्ता ने 1 नवंबर को फिल्म के लिए दिया प्रमाण को सेंसर बोर्ड से रद्द करने के लिए प्रार्थना की थी और विवादास्पद और आपत्तिजनक संवादों को फिल्म से निकाल देने कि मांग की थी. साथ ही याचिका में उनके अनुसार फिल्म में धार्मिक हिंदुओं की भावनाओं को ठेस पहुची है और इसका शीर्षक 'रामलीला' से भारतीय समाज पर बड़ा प्रभाव पड़ा है,राम 'लीला' (कार्य) के रूप में समाज के लिए एक गलत संदेश दे रहा है ऐसा तर्क याचिकाकर्ता का था। इसके अलावा उसने केंद्र सरकार, राज्य सरकार, केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड, उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव, इरोज इंटरनेशनल और भंसाली को भी याचिका में एक पक्ष बनाया है। 

फ़िल्म जहाँ एकतरफ रामलीला  भंसाली कि बाकि फिल्मो कि तरह भव्य और विशाल है वही दूसरी तरफ रंगो से भरी हुई है "देवदास" और "हम दिल दे चुके सनम" कि तर्ज पर बनी फ़िल्म में दीपिका अपने अभिनय से फ़िल्म में जान फूक देती है, पूरी फ़िल्म में दीपिका अपनी आँखो के बेजोड़ अदाकारी से लीला को जीवित कर देती है,रणबीर सिंह ने फ़िल्म  में जान लगा दी है और वो अपने संवाद में गुजराती स्वाद महसूस कराते है, वही दूसरी तरफ फ़िल्म में संजय गुजरात कि संस्कृति का एक और पहलू हमारे सामने प्रस्तुत करते है, पूरी फ़िल्म में गोलियाँ बेपनाह चलती है और दो समुदायो के बीच कि दुश्मनी में राम और लीला के बिच का प्यार मात्र एक नजर में होना और बाकि कि सारी घटनाये बड़ी रफ़्तार से होती है मगर फ़िल्म के दूसरे हाफ में संजय इस रफ़्तार को बनाये रखने में असफ़ल साबित हुए है, फ़िल्म का अंत एकदम "इश्कजादे" कि तर्ज पर होता है परन्तु दर्शको में अफ़सोस नहीं छोड़ पाता जैसा "इश्कजादे" ने छोड़ा था कुल मिला कर फ़िल्म सिर्फ तीन वजहों से आप देख सकते है वो है बेहतरीन संगीत , भव्य सेट और दीपिका,रणवीर सिंह का  बेहद उम्दा अभिनय।   

फ़िल्म में किसी तरह से रामजी और उनकी रामलीला से कोई सम्बंध नहीं है और जो बेवकूफ इससे ऐसा समझते है उन्हें सबसे पहले तो इस फ़िल्म को देखना चाहिए,आज जो संस्कृति के तथाकथित भला सोचने वाले है उन्हें इन ओछी भावनाओं से सर्वप्रथम बाहर आना पड़ेगा और अगर उन्हें इतनी फ़िक्र है तो जो संस्कृति के नाम पर लूट-खसोट और धंधा चल रहा है उसे सबसे पहले बंद करना पड़ेगा, आज मंदिर-मस्जिद के नाम पर जो समाज का हश्र हो रहा है वो कभी किसी भी व्यक्ति के लिए अच्छा नहीं हो सकता और यहाँ उन संस्कृति के पुजारियों को आना पड़ेगा। 


भ्रष्टाचार प्रेमी,बलात्कार प्रेमी  और हर प्रकार का अत्याचार  प्रेमी एक किस्म कि इंडियन सोसाइटी कब तक नाम से डरेगी और नाम प्रेम में मरेगी।  गोलियो की रासलीला भी पिक्चर रामलीला में अदालती आदेश से ही जुड़ा  था। गुजरात में छत्रिय समाज़ को जाड़ेजा और राबाड़ी नाम पर तकलीफ हुई तब नाम बदल कर सानेडा और राजाड़ी कर दिया गया। वैसे शेक्सपीयर ने भी कभी नहीं सोचा होगा कि उनका रोमियो-जुलिएट २१ वीं सदी में इतना रंगमय और उल्लासमय होगा कि दर्शक उसे हाथो हाथ स्वीकार करेंगे। अदालतें रोक लगाती रहे लेकिन पहले हफ्ते में रामलीला ने वह कमाई कर ली है,जिससे कोई अदालत नहीं रोक  सकती।   


अंशुमान श्रीवास्तव  

Thursday 17 October 2013

राजनीती का "नमो" एवं "राग" काल..!!

ये बात तो अब कांग्रेस को भी समझ में आ गई है की उनके पास मोदी रूपी चुनौती को पार पाने के लिए कोई खास उपाए नहीं है ,राहुल गाँधी को वो अपना भावी उम्मेदवार बनाने पर एकमत जरुर है परन्तु राजनीती में छवि बहुत महत्वपूर्ण होता है जैसा PR नरेन्द्र मोदी ने सोशल मीडिया एवं अपने तथाकथित भाषणों से बनायीं है वो तारीफ के काबिल जरुर है आज मोदी हर मुद्दे पे अपनी बात रखते है जरिया कोई भी हो उन्हे पसंद और नापसंद करने वाले दोनों उनकी बातो को बड़ी गंभीरता से लेते है और यही कारण  है आम इन्सान कही न कही मोदी को खुद से जोड़ता  जरुर है।

आज सोशल मीडिया पे भले ही "फेकू" को गरियाने वालो की तादात उन्हें पसंद करने वालों से कम है लेकिन वो  उनकी  की हर बात को बड़े ध्यान से सुनते है और आलोचना करने को तत्पर रहते है और इसी दौड़ में कांग्रेस की तथाकथित ट्विटर फौज जिसमे शकील अहमद ,मनीष तिवारी ,शशि थरूर भी आते है वो भी पुरे दम से उन्हें virtual world पर पटकने का प्रयास करते है वो इसमें कितने हद तक सही साबित  हुए है या होंगे ये तो हमेशा की तरह आने वाला वक़्त ही बताएगा।

राहुल गाँधी की छवि आज कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन कर रह गई है,वो सीधे तौर पर मोदी का नाम लेने से हमेशा बचते आये है परन्तु उन्ही की तरह aggressive nature को जरुर पाले हुए है ऐसा स्वाभाव उन्हें कितना आगे ले जाता है ये देखना होगा वैसे सपा का घोषणा पत्र फाड़ने के बाद उन्हें कोई खास कामयाबी तो मिली नहीं!! आगे देखना होगा।  रशीद किदवई की नयी किताब २४ अकबर रोड ने थोडा बहुत कांग्रेस के भविष्य के बारे में ट्रेलर दिखा दिया है इसी बात के डर से अब कांग्रेस अपने लिए कोई ठोस नेतृत्व की तलाश में है सोनिया गाँधी अगर वाकई में राजनीती से सन्यास ले लेती है तेंदुलकर की तरह तो आने वाला चुनाव कांग्रेस के नेतृत्व के हिसाब से बहुत महत्वपूर्ण साबित होने वाला है ,अगर इस चुनाव में राहुल का करिश्मा नहीं चलता है तो उन्हें किसी और की तरफ देखना पड़ सकता है और अगर प्रियंका गाँधी इस जिम्मेदारी को उठाती है तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होगा वैसे शादी के बाद अपने नाम के आगे वाड्रा न लगाना और अपने आप को इंदिरा गाँधी की तरह दिखाना कोई अक्समात नहीं हो सकता।

मदनी रूपी नया जिंह सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता के खेल में एक नया प्यादा बन कर आया है भाजपा जहा एकतरफ इसी अपने लिए फ़ायदामंद मान  रही है वही तथाकथित धर्मनिरपेक्षता की वकालत करने वाले दल सपा ,बसपा जद-यू,कांग्रेस इत्यादि दलों को उसकी बात बहुत गहरी चुभी है, मदनी ने अपने बयान से सबसे ज्यादा कांग्रेस को अघात किया है और उसकी कमजोर नब्ज को दबा दिया है जिससे वो पूरी तरह से तिलमिलाकर रह गई है मदनी के इस बयान को किस रूप में वो देखे उन्हें समझ में नहीं आ रहा है।

चुनाव आने वाले है ऐसी बयानबाजी और लफाड़बाजी बिन बादल बरसात के रूप में आते ही रहेंगे देखना होगा किसका फसल लहराता है और किसका छप्पर इस बरसात में उड़ जाता है वैसे" नमो -राग " का क्या होता है पता नहीं परन्तु हमारे आडवानी जी नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनने पर खुश रहेंगे ये सुन कर अच्छा लगा लगता है "रूठे हुए बड़का फूफा मान गए है " ये एक अच्छी खबर है वही दूसरी तरफ राहुल बाबा भी दम भर प्रचार कर रहे है आशा है उनके यहाँ कोई बड़का फूफा नहीं होगा (मै  चिदंबरम या अंटोनी साहब को बिलकुल नहि बोल रहा हूँ ) आगे जनता समझदार है और मै  आशावादी। ….

अंशुमन श्रीवास्तव

COLLAGES...!!!!



आप किसी से भी कभी भी प्रेरणा पा सकते हो, मै भी इनसब से कही न कही, कभी न कभी जरुर प्रेरित हुआ हूँ और आगे भी होता रहूँ इसकी उम्मीद करता हूँ।

अंशुमन श्रीवास्तव

Monday 14 October 2013

वो पगली लड़की..!!!

अमावस की काली रातों में दिल का दरवाजा खुलता है,
 जब दर्द की काली रातों में गम आंसू के संग घुलता है, 
जब पिछवाड़े के कमरे में हम निपट अकेले होते हैं,
 जब घड़ियाँ टिक-टिक चलती हैं,सब सोते हैं, हम रोते हैं,
 जब बार-बार दोहराने से सारी यादें चुक जाती हैं,
 जब ऊँच-नीच समझाने में माथे की नस दुःख जाती है,
 तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है, 
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है। 


जब पोथे खाली होते है, जब हर्फ़ सवाली होते हैं,
 जब गज़लें रास नही आती, अफ़साने गाली होते हैं, 
जब बासी फीकी धूप समेटे दिन जल्दी ढल जाता है, 
जब सूरज का लश्कर छत से गलियों में देर से जाता है, 
जब जल्दी घर जाने की इच्छा मन ही मन घुट जाती है, 
जब कालेज से घर लाने वाली पहली बस छुट जाती है, 
जब बेमन से खाना खाने पर माँ गुस्सा हो जाती है, 
 जब लाख मना करने पर भी पारो पढ़ने आ जाती है,
 जब अपना हर मनचाहा काम कोई लाचारी लगता है,
 तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है, 
और उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है...! 


वो पगली लड़की जिसकी कुछ औकात नहीं, कुछ बात नहीं 
जिसके दिल में शायद इतने  भारी- भरकम  जज़्बात नहीं 
जो पगली लड़की मेरी खातिर  नौ दिन भूखी रहती है,
 चुप चुप सारे व्रत रखती है,  मुझसे न कभी कुछ कहती है,
 जो पगली लडकी कहती है, "मैं प्यार तुम्ही से करती हूँ",
 लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा-बाबा से डरती हूँ, 
उस पगली लड़की पर अपना कुछ भी अधिकार नहीं बाबा,
 ये कथा-कहानी-किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा,
 जब उस पगली लडकी के संग, हँसना फुलवारी लगता है,
 तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है।
 पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है...!


जब कमरे में सन्नाटे की आवाज़ सुनाई देती है, 
जब दर्पण में आंखों के नीचे छाइ दिखाई देती है,
 जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो, 
क्या लिखते हो लल्ला दिन भर, कुछ सपनों का सम्मान करो,
  जब बाबा वाली बैठक में कुछ रिश्ते वाले आते हैं, 
जब बाबा हमें बुलाते है,हम जाने मे घबराते हैं,
 जब साड़ी पहने लड़की का, इक फोटो लाया जाता है,
 जब भाभी हमें मनाती हैं, फोटो दिखलाया जाता है,
 जब पूरे घर का समझाना हमको फनकारी लगता है,
 तब एक पगली लड़की के बिन जीना गद्दारी लगता है,
 पर उस पगली लड़की के बिन मरना भी भारी लगता है...! 


जब दूर दराज इलाको से, खत लिख कर लोग बुलाते है 
जब हम ट्रेनो से जाते है, जब लोग हमे ले जाते है 
जब हमको ग़ज़लों गीतो का, वो राजकुमार बताते है
 जब हम महफिल की शान बने, इक प्रीत का गीत सुनाते है 
कुछ आँखे धीरज खोती है, कुछ आँखे चुप-चुप रोती है
 कुछ आँखे हम पर टिकी-टिकी गागर सी खाली होती है 
जब सपने आँजे हुए लड़कियाँ, पता माँगने आती है 
जब नर्म हथेली से पर्चों पर आटोग्राफ कराती है 
जब यह सारा उल्लास हमे खुद से मक्कारी लगता है
 तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
 पर उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है…. !!! 



 सौजन्य-श्री कुमार विश्वास

Wednesday 25 September 2013

सुशाशन बाबु का कुशाशन!!!!

 कहा जाता है

                " विनाश काले विपरीत बुद्धि " 



यह मुहावरा बिहार के मुख्यमंत्री श्री नितीश कुमार को दुसरो को कहने से पहले खुदपर लागु कर के देखना चाहिए यह उनपर एकदम सटीक बैठता है | आज उनकी हालत ८ साल पहले रहे अपने पूर्व निकटम साथी एवं आज के धुर विरोधी श्री लालू प्रसाद यादव जैसे ही हो गई है , जिस निराशा का भाव बिहार की जनता उस समय महसूस किया करती थी ठीक वैसा ही कुछ आज का माहौल है | पहले और आज के माहौल में काफी कुछ समानताये है जहाँ पहले भी सत्ता के सुख का अनुभव बाहुबली किया करते थे वही आज फर्क सिर्फ इतना है की नाम उनकी पत्नियों का रहता है और सारा मजा बाहुबली नेताजी खुद करते है|

मुज़फ्फरपुर की विधायक श्रीमती अन्नू शुक्ला, बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी है और नितीश कुमार से पुरानी वफादारी  होने के कारन मुन्ना शुक्ला अपनी  पत्नी का सारा काम खुद ही देखते है वो भी जेल में बैठ कर, वही दूसरी तरफ पूनम देवी यादव ,लेसी सिंह ,बीमा भारती ,गुलजार सिंह जैसे तमाम ऐसे महिलाये है जो नाम मात्र बिहार विधानसभा में MLA है और उनका सारा काम नितीश कुमार के वफादार बाहुबली एवं उनके पति  ही करते है | पूनम देवी यादव के पति रणबीर यादव १९८३ के लखीमपुर में हुए नर-संघार  के लिए  दोषी साबित हुए एवं जेल में अपनी सजा काट चुके है एवं पूनम जी का सार काम काज देखते है , उसी प्रकार लेसी सिंह कुख्यात भुतन सिंह की पत्नी है जो की एक हिस्ट्री शीटर थे | वही अवधेश मंडल जो की अपने जिले में काफी मशहूर है अपनी बाहुबली छमता को ले कर उनकी पत्नी बीमा भारती उसी जिले से विधायक है|

जनता दल यू के कुल 118 MLA में 58 के ऊपर क्रिमिनल चार्जेज है और उन 58 में से 43 के ऊपर  IPC की संगीन धराये लगी है जो किसी भी आम इन्सान को जेल में रहने का बंदोबस्त कर सकने में सक्षम है और जो बाकि बचे है उनमे से भी करीब 70% ऐसे लोग है जो अप्रत्यक्ष रूप से सरकार को चला रही है उन सभी में ऊपर दिए गए उदहारण शामिल है |

जुलाई 2011 में, अजय सिंह  बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से मिलने के लिए गए थे , अजय सिंह की मां जगमातो  देवी जनता दल (यूनाइटेड) के विधायक  थी और उस वक़्त उनकी मृत्यु हो गई थी | अजय सिंह को  सीवान जिले में अपने निर्वाचन क्षेत्र धुरौधा  से उपचुनाव लड़ना चाहते थे , लेकिन बैठक में एक आश्चर्य मोड़ ले लिया. नीतीश ने उन्हें शादी करने के लिए कहा, माँ की मौत के तुरत बाद उन्होंने शादी करने से उससमय इंकार कर दिया फिर भी नितीश कुमार ने जोर दिया और उनसे कहा की वो उनकी माँ की अंतिम इच्छा थी और उसे वो पूरी करे |


परन्तु अजय सिंह असंतुष्ट हो कर  घर लौट आए, कुछ हफ्ते बाद  वह फिर से पटना गए . इस बार नीतीश कुमार ने फिर कहा की  " आप एक शिक्षित लड़की से शादी कर लो. वह कम से कम 25  वर्ष की हो ये  सुनिश्चित करें"  उपचुनाव में  नितीश कुमार दोनों तरफ से फायदा लेने का एक जबरदस्त प्लान बनाया जहा एक तरफ उन्होंने अजय सिंह की बाहुबली छमता का उपचुनाव जितने में भरपूर फायदा मिला वही दूसरी ऒर उनकी  दागी छ्वी को लेकर भी कोई छिछालेदर नहीं हुआ जहाँ  अजय सिंह पर  एक हत्या के सहित 30 से अधिक आपराधिक मामले  लंबित है | विवाह 17 सितंबर को नामांकन भरने के दो दिन पहले पितृपक्ष के असुभ महीने में ही हो गया , 13 अक्टूबर  को उपचुनाव में अजय सिंह की पत्नी कविता सिंह ने  20,000 से अधिक मतों से जीत हासिल की.

आज अजय सिंह अपनी  पत्नी के साथ सार्वजनिक समारोहों में शिरकत  करते है,  सरकार के अधिकारियों के साथ निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दों पर चर्चा करते है  और विधायक के सरकारी मोबाइल फोन का भी इस्तमाल खुद ही करते  है वही  कविता सिंह सिर्फ नाम भर की विधायक बन कर बैठी हुई है, लेकिन वह ऐसी स्थिति में एकमात्र महिला विधायक नहीं है यह चिंता की बात है |

राजनीती अपने हिसाब से परिस्थितियों में सामंजस्य बिठा ही लेती है, और सिर्फ यही एक एकलौता छेत्र है जहाँ योग्यता कोई मान्यता नहीं रखती सीवान जिले के अजय सिंह को उत्तर बिहार में खौफ का दूसरा नाम समझा जाता है, अजय सिंह‍ को बिहार की सबसे बड़ी हिंदी साहित्‍य अकादमी का अध्‍यक्ष बनाया गया है। एक आपराधिक छवि वाले शख्स जिसका साहित्य और साहित्य सम्मेलन से दूर-दूर तक कभी रिश्ता नही रहा है उसे हिंदी साहित्‍य अकादमी का अध्‍यक्ष बनाना नीतीश सरकार पर कई सवाल खड़े करता है।अजय सिंह पर सीवान और छपरा में मोटरसाइकिल लूट, अपहरण, हत्या के लगभग 30 मामले दर्ज है। फिलहाल वे सभी मामलें में जमानत पर हैं अजय सिंह को अभी एक आपराधिक मामले में पटना हाइकोर्ट ने सजा तक बरकरार रखी है जिस आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका लंबित है।

बताया जाता है कि बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्तमान अध्यक्ष अनिल सुलभ का कार्यकाल समाप्त होने के दौरान निर्वाची पदाधिकारी ने निर्वाचन की प्रक्रिया शुरू की थी, जिसमें अध्यक्ष पद के लिए वर्तमान अध्यक्ष अनिल सुलभ, डा. शिववंश पांडेय, कृष्ण रंजन सिंह व अंजनी कुमार सिंह ‘अंजान’ के नाम का प्रस्ताव गया था।इनमें से दो व्यक्तियों द्वारा चुनाव लड़ने से इनकार करने के बाद अनिल सुलभ और अंजनी कुमार ही चुनाव मैदान में रह गए थे पर इसी बीच अचानक बाहुबली अजय सिंह को हिन्दी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष घोषित कर दिया गया।


आश्चर्य की बात है की नितीश कुमार जो खुद एक पढ़े है उन्होंने अजय सिंह को साहित्य सम्मलेन का अध्यक्ष बना दिया है जो सिर्फ  8वीं पास है यह तो "चिराग तले अँधेरा" वाली बात हो गई , अब यही सुशानन  जब नितीश कुमार दिखायेंगे तब निश्चित ही बिहार की जनता आगामी चुनावो में अपने लिए किसी और चेहरे का चुनाव करना पड़ेगा जो उन्हें कम से कम इन अपराधिक छवि वाले नेताओ से मुक्ति दिलाये वरना जिसके लिए बिहार हमेशा बदनाम रहा उसी जंगल राज में नितीश कुमार सरीखे लोग अपने निजी स्वार्थ को भेदने में राज्य को वापस धकेलने के लिए आतुर दिखाई पड़ते है | जितनी जल्दी संभल जाये अच्छा है वरना जनता से समझना क्या होता है ये  उन्हें लालूजी से निश्चित ही समझना पड़ेगा |





अंशुमन श्रीवास्तव 


Sunday 22 September 2013

फिर कभी मिला करो

यूँ ही बे-सबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो...
वो ग़ज़ल की सच्ची किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो...
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से,
 ये नये मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो...

अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आयेगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो...
 मुझे इश्तहार-सी लगती हैं, ये मोहब्बतों की कहानियाँ,
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सुना नहीं वो कहा करो...
कभी हुस्न-ए-पर्दानशीं भी हो ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन-सँवर के कहीं चलूँ,
 मेरे साथ तुम भी चला करो...

ये ख़िज़ाँ की ज़र्द-सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
 ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आँसुओं से हरा करो...
नहीं बे-हिजाब वो चाँद-सा कि नज़र का कोई असर नहीं
 उसे इतनी गर्मी-ए-शौक़ से बड़ी देर तक न तका करो...


 अंशुमन श्रीवास्तव

Tuesday 10 September 2013

मुज़फ्फर=जीत ?? या हार

उर्दू में मुज़फ्फर का अर्थ होता है जीत और शायद 1633 में शाहजहां ने इस शहर का नाम रखते वक़्त यह न सोचा होगा की वहाँ आज सिर्फ और सिर्फ हार होगी ,ज़िन्दगी की हार समाज की हार मजहब की हार, और आम आदमी की हार वहाँ  जीत है तो सिर्फ सियासत के चन्द ठेकेदारों की जो अपने आप  को किसी खास समुदाय का अघोसित नेता मान  बैठते है और हम भी कही न कही उन्ही ठेकेदारों के इशारों  पर कठपुतली सरीखे नाचने लगते है मगर वास्तव में ये हम भूल जाते है की "सियासत का दुपट्टा किसी की आखों  से बहते अश्क से कभी नम नहीं होता " वो समाज के दलाल न आज तक समाज का कुछ भला कर पाए है और न ही आगे करेंगे ये हमे समझना पड़ेगा।

पिछले 14 दिनों से मुज्जफरनगर दंगो की चपेट में है वहाँ  की सड़के आम नागरिकों की जगह सेना की चहलकदमी के तले रौंधी जा रही है वहाँ पर लगभग 1000 सेना के जवानों को तैनात किया गया है और कर्फ्यू के हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में लगाया गया है  10,000 प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबल (पीएसी) के जवानों, 1300 से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के सैनिक और 1,200 रैपिड एक्शन फोर्स (आरएएफ) के जवानों की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए तैनात किया गया हैं, फिर भी स्तिथि काबू में नहीं है पुरे  मुज़फ्फरनगर और उसके सटे इलाको में हिंसा की घटनाये आती जा रही है और प्रशाशन और पुलिस मात्र एक मूक दर्शक बन कर रह गए है। 

घटना की शुरुआत 27 अगस्त की है जब  एक दलित महिला को कथित तौर पर शामली में मुस्लिम युवाओं द्वारा बलात्कार करने की कोशिश किया गया , और इसके जबाब में  उन युवाओं की हत्या कर दी गई जिसके साथ ही मुजफ्फरनगर और शामली जिले में दो समुदायों के बीच छिटपुट संघर्ष की खबरे आई फिर इसी घटना की पृठभूमि में सियासी दलों के हस्तक्षेप के बाद ये एक विकराल दंगे का रूप ले लिया जिससे अभी तक 31 लोगो की मरने और करीब 40 लोगो की बुरी तरह से घायल होने की खबर आई है। 

पिछले साल सरकारी आकड़े कहते है की ऐसी  दंगे सरीके घटना करीब 410 के आसपास थी और इस साल हमने  इसमें काफी तरक्की की और सिर्फ अब तक ये आकड़ा 450 के पर पहुँच गया है और ये साल ख़त्म होने में अभी काफी समय बाकि है। मैं इस घटना को राजनीतिक दृष्टी से देखने की कोशिश करने के बिलकुल भी मुड  में नहीं हूँ अपितु पिछले 16 दिसम्बर को जो कुछ भी निर्भया के साथ हुआ कुछ ऐसा ही लगभग मुज़फ्फरनगर की उस दलित महिला के साथ हुआ मगर उसके विरोध करने के तरीके में दोनों में ज़मीन- आसमान का अंतर है, जहाँ दिल्ली में आम जनता की संवेदना पूरी तरह से निजी आधार पर थी वही मुज़फ्फरनगर की घटना में जनता की संवेदना पूरी तरह से मजहब के आधार पर तब्दील कर दी गई है और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं है जो आने वाले लोकसभा चुनाव के खातिर वोटों का ध्रुवीकरण करने में लगे है अपितु हम और आप जैसे लोग है जिन्हें सिर्फ और सिर्फ बटना  आता है और सिर्फ धरम के नाम तक सिमित नहीं है अपितु जात-पात पर भी हम एक दुसरे से नफरत करते है। 

पश्चिमी उत्तरप्रदेश का इलाका को अपनी सम्पन्नता और एकता के लिए कभी जाना जाता था वहां आज का हाल अपनी पुरानी स्तिथि से पूरा उलट है ,मेरठ जोन में जितने भी इलाके आते है उनमे जाटों का वर्चस्व बहुत ज्यादा है वहां आज भी मजहब से ऊपर बिरादरी होती है अथार्थ एक गाँव में डोमटोली,चमरटोली,बाबुटोली में आज भी हिन्दू मुस्लिम एक साथ रहते है मगर आश्चर्य की बात है की इस प्रायोजित दंगे  को करवाने में उन अराजक तत्वों ने सामाजिक ढाचे को तहस नहस करने में भी जरा भी देरी नहीं लगाई और आज आलम यह है की जिस इलाके में जो समुदाय ज्यादा तादात में है वहां वो दुसरे के घर को आग लगा रहा है और उसको पूरी से तबाह कर रहा है जिससे उसकी ज़िन्दगी किसी रेफ़्फ़ुजि की तरह से बितानी पढ़ रही है। 

अखिलेश सरकार को सत्ता में आये डेढ़ वर्ष हो चुके है और अबी तक वो 27 दंगो के गवाह बने है मेरा मानना है की सरकार जिसके पास सारे  संसाधन उपलब्ध है जो सक्षम है हर तरह से हर परिस्थिथि से गुजरने के लिए वो समय रहते कभी कोई कदम क्यों नहीं उठाती क्यों बार बार असम,किश्तवाड़ ,नवादा,बरेली और मुज़फ्फरनगर जैसे घटनाये होती है जिन्हें अगर सरकारे समय रहते रोक लेती तो वो निश्चित ही इतनी बड़ी कभी न बनती,ये बात हमें समझनी होंगी की हर दंगे के बाद असल राजनीती फ्रेम में आती है और हर दल अपने आप किसी न किसी समुदाय का हितैषी बनता है जिससे वो कथित रूप से अपने वोट बैंक में तब्दील कर देता है और हमारी राजनीती फिर से चल पड़ती हैं, ऐसी घटनाये क्या रोकी नहीं जा सकती? क्या ये इच्छाशक्ति की कमी की वजह से होती है? या राजनीतिक दल हर हर संभव तरीके से अपने वोट बैंक पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते है ये समझने की जरुरत है। 

आशा करता हूँ जो आग लगी है उसपर भारतीय राजनीति पानी डालने का काम करे न की तेल डालने का वरना गंगा-जमुनी सभ्यता को संभालना बहुत मुश्किल हो जायेगा और हम और आप दोनों मिल कर सोचे और उन चेहरों को भी पहचाने जिनके हाथो में माचिस की स्लाहिया हैं। 

अंशुमन श्रीवास्तव 

Sunday 8 September 2013

क्रिकेट-खेल या वर्चस्व की जंग???

महीनो पहले तय  हुए भारत-दक्षिण अफ्रीका  टेस्ट सीरीज से पहले दोनों देशो के क्रिकेट बोर्ड प्रमुख एन. श्रीनिवासन और हारुन लोर्गट के बिच हुए विवाद की वजह से भारत का दौरा 25 दिनों का घट  कर रह गया है।  प्रस्तावित सीरीज में ३ टेस्ट ७ ODI एवं २ T-20 मैच थे जबकि अब मुश्किल से २ टेस्ट और ३ ODI और एक T-20 मैच ही हो पायेगा जिससे दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट बोर्ड को अनुमानित $ 29 million का नुकसान  उठाना पड़ेगा।  

शायद यही वजह थी कि कल हारुन लोर्गट ने अपने अहंकार को धन के सामने बौना दिखा कर BCCI  के सेक्रेटरी संजय पटेल से फ़ोन पर बात कि और दुबई में होने वाले ICC के मुख्य कार्यकारी अधिकारियो की बैठक के बाद आपस में बैठ कर मसले को सुलझाने के लिए समय माँगा। इधर संजय पटेल ने कहा "मैंने  लोर्गट से बात की और हम आईसीसी की बैठक के दौरान चर्चा के लिए सहमत हुए।  लेकिन हम केवल 29 सितंबर को बीसीसीआई की वार्षिक आम बैठक के बाद दक्षिण अफ्रीका के दौरे के कार्यक्रम की पुष्टि कर सकते हैं, हमारे पास  केवल एक स्लॉट उपलब्ध  है और हम इस पर कुछ फैसला जरुर करेंगे " मतलब साफ़ है की BCCI अभी भी लोर्गट से सम्बन्ध बनाये रखने में कुछ खास दिलचस्पी नहीं दिखा रही है वैसे BCCI  की लोर्गट से मतभेद काफी पुराने है  2008 में हारुन लोर्गट के आईसीसी प्रमुख बनने के बाद कई मुद्दों पर उनके एवं BCCI के बिच असहमति थी  "लोर्गट ने बीसीसीआई की इच्छा के खिलाफ  निर्णय समीक्षा प्रणाली (डीआरएस) के लिए प्रेरित कर रहे थे, फिर बाद में  प्राइस वॉटरहाउस कूपर्स के साथ आईसीसी के मामलों की एक स्वतंत्र समीक्षा करने के लिए लोर्गट ने  लॉर्ड वूल्फ आयोग की स्तापना की जो  2011 के विश्व कप की स्वंतंत्र तरीके से जाँच करने के लिए बनी। यह  ताबूत का अंतिम कील साबित  हुआ और उसके बाद BCCI को कभी लोर्गट रास नहीं आये ।

जब हारुन लोर्गट दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष बने थे तभी BCCI  ने आप्पति जताई और जबाब में 
एक दक्षिण अफ्रीकी पत्रकार व  इंग्लैंड के पूर्व बल्लेबाज डेनिस कॉम्पटन के बेटे ट्वीट में CSA को बधाई देते हुए BCCI की  आप्पति जताने की बात पर कड़े शब्दों  में निंदा की।  और तब के बाद अब CSA की गर्दन BCCI  के पकड़ में आई है जिससे वो अपना पूरा हिसाब किताब बराबर करने में लगी है।  गौरतलब है की ICC के भविष्य दौरा कार्यक्रम के अंतर्गत भारत-दक्षिण अफ्रीका सीरीज नवम्बर में प्रस्तावित है लेकिन वेस्ट इंडीज के भारत आने के कारण ICC का केलिन्डर पूरी तरह से बेकार हो गया है जो की एक बार फिर से भारत का दबदबा सम्पूर्ण क्रिकेट जगत में स्तापित करता है देखना होगा की BCCI अपने नियमो पर ICC को चलता रहेगा अथवा हमेशा की तरह इसबार भी ICC  मात्र एक मूक दर्शक भर बन कर देखता रहेगा और "बाप बड़ा न भैया सबसे बड़ा रुपैया "की तर्ज पर BCCI  की मनमानी चलने देगा। 

अब देखन होगा CSA  BCCI  की मांगों को मानता है या किसी बीच के निष्कर्ष पर दोनों देशो के बोर्ड पहुचते है, वैसे  दक्षिण अफ्रीका के दौरे रद्द कर दिया जाएगा ऐसी संभावना नहीं है  लेकिन अगर किसी निष्कर्ष पर नहीं पंहुचा गया तो निश्चित भारत T20s खेलने के लिए मना  कर सकता है  या यहां तक ​​कि एकदिवसीय मैचों की संख्या को कम कर सकता है। भारत 2010-2011 में पिछले दक्षिण अफ्रीका का दौरा किया था, तब  CSA   ने करीब 400 करोड़ रुपए का राजस्व हासिल किया था, इसबार भी CSA  कुछ ऐसा ही सोच रही थी मगर BCCI  ने उनकी मंशा को खटाई  में डालने का काम किया है।  


वैसे अगर देखा जाये तो BCCI  को कोई हक नहीं बनता इस तरह से फैसले लेने का और अगर कही ICC  भी IOC की तरह ताकतवर होती तो निश्चित ही वो भी IOA  की तरह BCCI  पर भी प्रतिबन्ध लगा देती मगर अफ़सोस ICC  तो BCCI  के रहमो करम पर चल रही संस्था है मगर देखना होगा की इस तरह के मनमाने फैसले के खिलाफ कोई आवाज कब तक नहीं उठती है और कब तक किसी एक  खास व्यक्तित्व के कारण  कब हम जैसे क्रिकेट के चाहनेवाले रोमांचक क्रिकेट से दूर रहेंगे। फ़िलहाल इन सब विवादों से दूर आने वाले वेस्ट इंडीज सीरीज में सचिन के 200 टेस्ट मैच का आनंद लेने के मूड में मै  हूँ , और आप भी हो ये आशा करता हूँ। 

अंशुमन श्रीवास्तव 





Wednesday 4 September 2013

किसी को क्या बेचेगा रुपैया……

शोना मोहापात्रा ने सत्यमेव जयते में गाते वक़्त कभी सोचा न होगा की रूपैये की हालत इतनी ख़राब हो जाएगी , सरकार  ने रुपये को संभालने के नए नए उपाए आये दिन मार्केट में उतार  रही है और उसमे सबसे नया वाला है सोने को बेचना है इस फैसले को सुन कर मुझे तो ये लगता है की हमारी हालत एक शराबी की तरह हो गई है जो पीने की आदत से मजबूर होकर अपने ही घर की  कीमती सामानों को बाजार में बेचता है जिससे  उसके पीने की हवस पूरी हो सके।

वाह रे सरकार जिस देश की बागडोर एक काबिल अर्थशास्त्री के हाथ में हो और जिस देश में चिदंबरम जैसे (नाम मात्र के ही सही) अर्थशास्त्री हो उस देश में सरकार अपनी विफलता का
पूरा ठीकरा RBI के गवर्नर सुब्बाराव के माथे पर मड कर बचने की पूरी कोशिश करती है मगर अफ़सोस
देश के काबिल मंत्री महोदय को यह भूल जाते है की देश थोड़ा बहुत ही सही समझदार हो गया   है।

 आज कल हमारे न्यूज़ चैनल  में जितने भी anchor  है उनको अपने एक घंटे को बिताने के लिए "NDA के 6 साल  Vs UPA के 9 साल " का मुद्दा उठाते है और उसी वक़्त हम और आप फैसला करने में व्यस्त हो जाते है की इस दौड़ में बेहतर कौन है ? आज कल के इस आधुनिक युग में आम लोग
बहुत तेजी से सरकार के फैसले जो उनको कही न कही उनको प्रभावित करते है उसपर अपनी राय जरुर पेश करते है और इसको व्यक्त करने के लिए आज बहुत सारे मंच उपलब्ध है फिर भी कही न कही सरकार जनता की जरूरतों को पहचानने में बहुत भूल कर रही है और इसके फलस्वरूप अपनी छवि धूमिल कर रही है।

रुपैये का गिरना बहुत चिंता का विषय है परन्तु इसपर भी फुटबॉल मैच सरकार और विपक्ष के बीच चल रहा है एक कहता है इसमें ९० फीसदी हाथ विदेशी पूँजी डॉलर का पलायन है और तर्क 
के रूप में दुनिया के सभी विकासशील देशो की पंगु हो रही पूँजी का दिया जा रहा है वही दूसरी तरफ विपक्ष सरकार की नीतियों को दिवालियापन  बताते हुए कहती है की "सरकार हमें चीयर लीडर्स न समझे कि हम उनके हर कदम पर तालिया  बजाये" . 

रुपये का गिरना सिर्फ और सिर्फ न्यूज़ चैनल्स में बैठे हुए anchors के लिए लिए दुखदायक नहीं है 
अपितु हम और आप जैसे लोग जो विदेशी पूँजी पर कही न कही आश्रित है उनके लिए बहुत हानिकारक
है आकड़े बताते है  की हर एक रुपये की गिरावट से हमारे ऊपर करीब 8000 करोड़ का कर्ज आ जाता है , हमारी पूँजी दुनिया के सभी विकासशील देशो की पूँजी में सबसे ख़राब स्तिथी में है हमारा चालू खाता
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 -12  के लिए  चालू खाता घाटा $ 782 हजार करोड़  था. यह वर्ष 2012-13 में $ 878 हजार करोड़  हो गया जो की  9.6 फीसदी से ऊपर है ।  इसका साफ़ मतलब यह है की हम विदेशो से सामान तो मंगा रहे है परन्तु हमारा अपना माल विदेशो में बिकने लायक नहीं है जिसके फलस्वरूप  हम विदेशी बाजार से कुछ खास कमा  नहीं पा  रहे है, अगर हालत ऐसी  रही तो निश्चित ही हमें अपनी अर्थव्यवस्था को भगवान के भरोसे छोड़ कर उनके मंदिर और मठों में जो पैसा है उससे अपनी जरूरतों को पूरा करना होगा।

देश में जो भ्रस्टाचार का दीमक लग गया है उससे निवेशको का विश्वास अपने सबसे निचले अस्तर पर है और
देशी निवेशक भी अपने पैसे विदेशो में ज्यादा लगा रहे है वजह साफ़ है की सरकार उन सभी को  विश्वास दिलाने में पूरी  तरह से  ना कामयाब साबित हुई है , नसिर्फ आर्थिक मोर्चे  पर अपितु कूटनीतिक स्तर पर भी सरकार  पूरी तरह से विफल हुई है चाहे वो पाकिस्तान का मसला हो चीन का हो या  फिर ईरान  से कच्चे तेल  निर्यात का मसला हो हम पिछले कुछ वर्षो से  दुनिया के सामने बहुत कमजोर दिखाई दिए है। 

आशा है अमेरिका और सीरिया के बीच  के  आनेवाले युद्ध से पहले  हम कुछ ऐसे ठोस आर्थिक कदम उठाए जिससे हमारा रुपैया इस युद्ध के परिणाम स्वरुप और ना  गिरे क्युकी  निश्चित है की इस युद्ध के कारन कच्चे तेल की कीमत बेतहाशा ऊपर जाएँगी जिससे हमारा चालू वित्तीय घाटा और बढेगा और परिणाम स्वरुप हमारी पूँजी डॉलर के सामने और कमजोर होगी। 

वैसे सरकार के पास वक़्त बहुत कम है  देश से ज्यादा अपनी फिकर है इसीलिए वो खाद्य सुरक्षा कानून को हर कीमत पर लागु कर के इसे अपने लिए ट्रम्प कार्ड के रूप में चल रही है और आशा कर रही है की इसी की बदौलत वो दोबारा सत्ता के सिंघासन को प्राप्त कर सकती है परन्तु इसकी आशा कम ही दिख रही है। 


देश और रुपये को बचने के लिए अब तो किसी शहंशा रूपी बोल बच्चन अमिताभ बच्चन की ही जरुरत पड़ेगी आशा करता हूँ  देश को वो एंग्री यंग मैन जल्द से जल्द मिल जाये और रूपया को संभाल ले वैसे हमारे नए RBI गवर्नर के पहले भाषण से कुछ उम्मीद की जा सकती है, मै उनको लेकर बहुत ज्यादा आश्रित एवं आशावादी हूँ आगे रघुराम जी की मर्जी…………………। 

अंशुमन श्रीवास्तव 

Thursday 22 August 2013

मंदिर मस्जिद बैर कराते मेल कराती मधुशाला............




                                                       



                                                             मैं कायस्थ कुलोदभव,
                                                          मेरे पुरखो ने इतना ढाला,
                                                              मेरे तन के लोहू में हैं ,
                                                          पचहत्तर प्रतिशत हाला,
                                                          पुश्तैनी अधिकार मुझे हैं,
                                                           मदिरालय के आँगन में ,
                                                          मेरे दादा, परदादा के हाथ,
                                                               बिकी थी मधुशाला ।



                                                             मुसलमान और हिन्दू दो हैं,
                                                             एक मगर उनका प्याला,
                                                             एक मगर उनका मदिरालय,
                                                             एक मगर उनकी हाला,
                                                             दोनों रहते एक न जब तक,
                                                             मंदिर, मस्जिद में जाते ,
                                                             बैर बढ़ाते मंदिर, मस्जिद,
                                                              मेल कराती मधुशाला ।

                      आज हरिवंश राय बच्चन की कविता लिखने का मन हुआ तो लिख दिया।  वैसे भी आज के राजनीतिक माहौल में उनकी यह कविता बहुत उचित है।  बाकि कुछ कहना नहीं है कविता बहुत कुछ कह रही है…….


अंशुमन श्रीवास्तव


Saturday 17 August 2013

"मोदीमय स्वतंत्रता दिवस"

हमारी आज़ादी को सठियाए ६ वर्ष हो गए है और  जो नीति एवं नियमों पे हम हाल के वर्षो में चल रहे है उससे तो ऐसा लगता है हम बहुत जल्द रिटायर भी हो जायेंगे।  १५ अगस्त का दिन आमतौर पे तो राष्ट्रीयता के पर्व के उपलक्ष्य में मनाया जाता है लेकिन चूकी चुनाव का साल आने वाला है इसलिए ये पर्व महज अपनी अपनी बड़ाई एवं दुसरे की बुराई करने का पर्व बन कर रह गया है।  उसपर से हमारे आडवानी जी ने जो नसीहत दे डाली है वो किसी भी राजनेता और खास कर मोदी जी को जरुर चुभी होगी।  एक बार फिर से भीष्म पितामह कृष्ण  वाला कार्य करने में वयस्थ हो गए और अघोषित अर्जुन को ये बात लग गई।  ऐसा न हो महाभारत की तर्ज पे हमारे भीष्म पितामह की समाधी अर्जुन के हाथों  रच जाये और हस्तिनापुर मिले न मिले खामखा उनकी बलि चढ़ जाये।


श्री मनमोहन सिंह जो की एक काबिल अर्थशास्त्री रहे है उनके प्रधानमंत्री रहते हुए भारतवर्ष में कल का दिन  BLACK FRIDAY के रूप में बीता और ये भी तब हुआ जब 15 अगस्त की छुट्टी के बाद बाजार खुला।  आशा तो थी की प्रधानमंत्री के भाषण से बाज़ार का माहौल बहुत अच्छा रहेगा परन्तु अपने लालकिला के 10 वे  और शायद अंतिम संबोधन  में राष्ट्र के सामने न सिर्फ जवलंत शील मुद्दों को रखने में विफल हो गए बल्कि ये सुन कर बाज़ार भी नहीं संभला और एकबार फिर गिर गया।  भाषण में आसमान छुते महंगाई, भ्रष्ट्राचार एवं आर्थिक विफलताओ का कोई जिक्र नहीं था। और न ही इनसब कारणों को काबू करने के लिए सरकार  क्या कदम उठा रही, आशा तो थी की जाते जाते मनमोहन जी एक बार फिर से 1991 का करिश्मा दोहरा दे वैसे भी देश की हालत 1991 की तरह ही हो गई है और जरुरत है कुछ ऐसे ही आर्थिक सशक्तिकरण की लेकिन ये हमारे देश की बदकिस्मती है की एक काबिल अर्थशास्त्री भी अपनी राजनीतिक मजबूरियों के कारण देश की हालत बदलने में नाकाम हुए है।  

वही दूसरी तरफ भुज के लालन कॉलेज ग्राउंड से एक और राजनेता अपना भाषण दे रहे थे और पुरे देश की मीडिया ने उस संबोधन को ऐसे दिखाया और ऐसे उसपर विवाद किया जैसे वो भाषण लालन कॉलेज से नहीं लालकिला से हुआ हो, उनके भाषण की हर बारीकियों पे N.K. SINGH और अभय दुबे जैसे पत्रकार ऐसे विवेचन कर रहे थे जैसे की नरेन्द्र मोदी का वो भाषण भारत के इतिहास का सबसे आप्तिजनक भाषण मे से एक हो और इस भाषण से उन्होंने देश के खिलाफ कुछ गलत बोल दिया हो, इतने तकलीफ में वे लोग इसपर बहस कर रहे थे जैसे किसी ने उनके नासूर को कुरेद कर ज़ख्म को फिर से हरा कर दिया हो। ये देश की मीडिया ही है जो सारे 28 राज्य और ७ केन्द्रशाषित प्रदेश को भूल कर सिर्फ गुजरात में नरेन्द्र मोदी के भाषण को ही सबसे जयादा फुटेज दी और डॉ मनमोहन सिंह के भाषण से जयादा विवेचना की, और आश्चर्य है उसी मीडिया के लोग मोदी पर ही ये आरोप लगाये जा रहे थे कि वो रेस में खुद को आगे कर रहे है।  

वही नरेन्द्र मोदी खुद भी अपने भाषण में गुजरात की कामयाबियो से ज्यादा केंद्र सरकार की विफलताओ को गिना कर लालकृष्ण आडवानी की तरह ही प्रधानमंत्री पद के मोह में पड़े दिखाई दिए। उनके भाषण की शुरुआत में ही केंद्र सरकार की निंदा करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी, अच्छा है जब कोई राजनेता राजनीती करता है लेकिन मोदी साहब ने तो ठान ही लिया है की हर मंच से वो अपनी दावेदारी और मजबूत करेंगे चाहे वो हैदराबाद की उनकी रैली हो या लालन कॉलेज की। साथ ही कुछ फूटकर नेताओ को अपने पाले में लेने का काम भी वो बहुत अच्छे तरह से कर रहे है कल ही हुए कांग्रेस नेता एवं लालू यादव के साले साधू यादव से मुलाकात के बाद साधू यादव ने उनको राहुल गाँधी से तुलना कर उन्हें सबसे बेहतर बता कर मीडिया को नसीहत दे डाली की "आप लोग बालू से तेल निकाल रहे है" . 

आज ही प्रीती पंवार जो की one India News की पत्रकार है उन्होंने अपने पेपर में कुछ कारण गिनाये है की मोदी ने भुज के लालन कॉलेज से ही क्यों स्वतंत्रता दिवस का संबोधन किया उसके तीन प्रमुख कारण है वो है 
 वो कुछ मुख्यमंत्रियों में से एक है,जो कभी भी राजधानी अहमदाबाद में स्वतंत्रता दिवस नहीं मनाते अपितु हर साल विभिन्न जिला मुख्यालयों में स्वतंत्रता दिवस की सभा का संबोधन करते है। इससे राज्य में MORE GOVERNANCE LESS GOVERNMENT का नारा और बुलंद होता है।
 

दूसरा कारण यह है कि पाकिस्तान की सीमा भुज से बहुत नजदीक है।  भुज शहर कच्छ (भारत पाकिस्तान सीमा) से 50-60 किलोमीटर की दूरी पे स्थित है,पाकिस्तान के संघर्ष विराम उल्लंघन के बाद भुज काफी संवेदनशील है, और अपनी आवाज पड़ोसी देश तक पहुँचने और मातृभूमि के लिए देशभक्ति व्यक्त करने के लिए सबसे अच्छा स्थान था, उन्होंने कहा, "मेरी आवाज पहले पाकिस्तान और बाद में दिल्ली पहुंचता है, ये उन्होंने 25,000 युवा भीड़ के सामने कहा। 

तीसरा प्रमुख कारण गुजरात का विकास और प्रगति है, हम सभी को 26 जनवरी, 2001 (भारत के 51 वें गणतंत्र दिवस) पर, भुज में 7.7 की भीषण भूकंप याद है और इससे परिणाम स्वरुप
20, 000 लोगों के आसपास मारे गए 1, 67, 000 घायल हो गए और लगभग 4, 00, 000 घरों (रिकॉर्ड के अनुसार)बर्बाद हो गए .2001 के बाद से तबाह भुज पूरी तरह नरेंद्र मोदी के शासन क्षमताओं से पुनर्वास किया गया है. लालन कॉलेज भुज से भाषण दे रहे मोदी गर्व महसूस कर रहे थे। 

 
भुज में हुए तबाही के बाद के विकास को नरेन्द्र मोदी ने
कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने जो भारतीय अर्थव्यवस्था को 'खंडहर' में बदला है उसके विपरीत किया हुआ एक सक्षम कदम के रूप में गिन कर अपने आप को एक अग्रिम पांति में लाकर खड़ा कर दिया है।

आशा है आगे से कोई भी राष्ट्रीय पर्व महज एक राजनीतिक अखाडा बन कर न रह जाये,
नियमित हर दिन तो ऐसा होता ही है राजनेता कुछ देश का सम्मान कर इन राष्ट्रिय पर्व को सौहार्द के वातावरण में मनाने का अवसर हम नागरिको को प्रदान करे तो अच्छा होगा।

अंशुमन श्रीवास्तव 
 


Saturday 10 August 2013

राजनेतिक संवेदनहीनता !!!!

आजकल बादल पुणे में बहुत बरस रहे है और इन्ही बादलो  की तरह राजनीती भी कुछ ऐसी ही हो गई है जो हर मौके दस्तूर पर बिना पूर्व सूचना दिए बरस रही है और ऐसी बरस रही है जिससे क्या नेता क्या अभिनेता या क्या सरहदों पे रक्षा कर रहे सैनिक, सब खूब भींग रहे है और इन बारिशों  में सबसे ज्यादा उन नेताओ की फसल लहरा रही है जो हमेशा से इन्ही सब मौके की तलाश में रहते है लेकिन इन बारिशो में वो ये भूल ही जाते है की फसल को नुकसान भी सबसे ज्यादा बारिश से ही होता है।

ठीक ऐसा ही हमारे सुशाशन बाबु के साथ हो रहा है, २३ बच्चों  की मौत पे जाने का समय भले न हो, ३ नौजवान सैनिको की चिताओ  को सलाम करने का समय भले न हो लेकिन सेवैयाँ  खाने का समय जरुर है और बात बात पर बीजेपी और राजद को एकसाथ दिखने का प्रयास करते रहने का
 मगर सुशानन बाबु आप ये भूल ही जाते है की आप कौन सी राजनीती  कर रहे है ये सब को पता है और समाज की इस धरा का समर्थन कभी भी  किसी राजनीतिक दल को सत्ता की चासनी में डूबने
का सुख नहीं  दे पाया है और अगर इस सत्य को आप जितनी जल्दी समझ ले उतना ही ये बिहार की
जनता और खास कर  आपके लिए फायेदेमंद   होगा।

आजकल C ग्रेड को लेकर बड़ा होहल्ला हो रहा है , कही ऐसा न हो जाये इंग्लिश अल्फाबेट से C  अपना नाता तोड़ ले और रूठ जाये क्यूकी  हर कोई C  को बड़ा बुरा मान रहा है।  पता नहीं उमा भारती जी
को C अल्फाबेट से क्या दिक्कत हो गई है वैसे दिग्विजय सिंह जी का नाम तो D  से आता है फिर भी
उन्होंने रजा मुराद को C  ग्रेड का अभिनेता क्या बोल दिया हर कोई एकदूसरे को C  शब्द से पुकार रहा है
इसमें मेरा एक दोस्त है Siddh  जिसे हम CD  बुलाते है वो बड़े तकलीफ में है , वो तो ये सुन कर उमाजी
को बहुत बुरा भला कह रहा था वैसे उसपे रजा मुराद फिर से जींह  की तरह एकबार फिर प्रकट हुए और
उल्टा उन्होंने उमाजी को C  की संज्ञा दी , बहुत बुरा हो रहा है अगर मै  C  की जगह होता तो दोनों पर
मानहानि का मुकद्दमा जरुर करता।

दूसरी तरफ एक शरीफ़ साहब है नाम के बिलकुल उलटे उनका नाम रखते वक़्त जरुर उनकी अम्मी ने अमावस में
चाँद के सपने देखे होंगे।  जो बोलते है उसके उलट हमेशा ही करते है चाहे वो कारगिल हो या हाल  में हुए
कश्मीर की घटना , और ऊपर से हमारे अंटोनी  साहब १२१ करोड़ की देश के वो रक्षा मंत्री अपनी ही पार्टी से
डरते फिरते रहते है और आलम ये है की रोज नए नए बयान देते है वो भी पुराने वाले का उल्टा ऐसा लगता
है वो बचपन की बातों को बड़ा संजीदगी से लिया है की बीती बातों  को भूल कर हमेशा कुछ नया बोले।
इनसब के ऊपर हमारे सिंह साहब !!!!!! अब इनपे कुछ लिखने के मुड में मै नहीं हु आप सब खुद ही
समझदार  है।

राजनीती बड़ी अच्छी बात होती है और जब राजनेता करते है तब अच्छा भी लगता है क्युकी उनके पास कोई
और काम भी नहीं होता है  लेकिन आशा करता हूँ कुछ संवेदनशीलता वो बरते तभी उन्हें करने में मजा आयेगा और हमें
देखने में , मेरा आशावादी रुख अभी भी बहुत स्पस्ट है।


अंशुमन श्रीवास्तव    

Saturday 3 August 2013

नौकरशाही!! नेताओं की या समाज की???

गौतमबुद्ध नगर की SDM  श्रीमती दुर्गा शक्ति नागपाल जो २०१० कैडर की IAS आधिकारी है और जिनके ऊपर लगाए गए आरोप " एक  धार्मिक स्थल की बनती हुई दीवार को गिराने का है" जिससे उत्तरप्रदेश में सांप्रदायिक सौहार्द बिगड़ने की आशंका थी और सत्तारुड पार्टी के नेता  के अनुसार किया गया एक बहुत ही दुरदार्शिता से परिपूर्ण फैसला है जिसके  लिए प्रदेश सरकार प्रशंशा की  पात्र  है , और इससे प्रदेश सरकार  ने पुरे उत्तरप्रदेश को दंगे की आग में झुलसने से बचा लिया है, लेकिन इस फैसले को करते हुए   प्रदेश सरकार  यह भूल गई की आज समुचा  देश उस युवा SDM जो अवैध रेत की खनन को रोकने में बहुत हद तक कामयाबी पाई  उससे पूरी तरह से जुड़ा  हुआ है.

इस फैसले से एक बार फिर ये साबित हो गया की नेता अपने हित के आगे किसी भी नौकरशाह चाहे वो श्रीमती दुर्गा शक्ति हो अशोक खेमका हो संजीव चतुर्वेदी हो या सतेन्द्र दुबे हो याफिर बहुत से अन्य किसीको भी कुछ नहीं समझते ,हमारे जैसे आम लोग हमेशा से यही समझते थे की एक जिले में IAS से ज्यादा  पॉवर किसी की भी नहीं  होती है लेकिन विडम्बना ये है की आज एक IAS उन नेताओ के गुलाम बन कर रह गए है जो चुने जाने बाद अपने आप को उस क्षेत्र  का राजा  समझने लगते है जबकि वो ये पूरी तरह से भूल जाते है की उनकी जबाबदारी सीधे जनता से होती है.

घटना जिस जिले से है वहाँ रोजाना  इस अवैध्य  खनन से ४  करोड़ का कारोबार होता है और राशी इतनी बड़ी है जिसके सामने रोकने के सारे उपाए छोटे हो जाते है इसके फलस्वरूप अनुमानित राशी सालाना US  $ 17 मिलियन की हो जाती है, इसको रोकने के लिए सरकार  ने एक SPECIAL MINING SQUAD का गठन किया जो पुरे तरीके से इसको रोकने में नाकाम हो गया था उस वक़्त श्रीमती दुर्गाशक्ति नागपाल ने 297 से भी जयादा ट्रक को पकड़ा और उनसे करीब 82. 34 लाख की राशी दंड के रूप में वसूल किया और करीब 22 से ज्यादा मुकद्दमे दर्ज कराये और करीब 17  लोग के खिलाफ FIR दर्ज किया और 23 जुलाई को कड़े शब्दों में उन सभी खनन माफियाओ के खिलाफ आवाज बुलंद की इसमें उनके ही एक सहयोगी आशीष कुमार को अगले ही दिन बर्खास्त कर दिया गया और सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने  की आड़ में कुछ दिनों के बाद उन्हें भी बर्खास्त कर दिया गया।

इसी प्रकार अशोक खेमका को पिछले 22 वर्षो से एक वरिष्ठ IAS अधिकारी है और उनका तबादला पिछले अप्रैल में कुल 44 बार हो चूका है वो हरियाणा में है और 1991 कैडर के अधिकारी है और उनक मामला मीडिया ने तब दिखाया जब उन्होंने DLF और रोबर्ट वाड्रा के बिच हुए विवादस्पद भूमि समझोते को देश के सामने रखा उससे पहले उन्होंने न जाने कितने भूमि की अवैध खरीद्फरोक्थ को उजागर किया जिसके फल स्वरुप वो औसतन हर विभाग में तक़रीबन 6 महीने ही टिक पाए और वो आज भी इस पुरे तंत्र से अकेले ही लड़ रहे है।

उसी प्रकार सिवान के इंजिनियर सतेन्द्र दुबे जिन्होंने  NHAI में हो रहे भ्रष्ट्राचार को उजागर किया और उसके फलस्वरूप उनकी हत्या कर दी गई. ऐसे तमाम उदाहरण है जो मेरी इस बात पे पूरी तरह से खरे साबित होते है की नेताओ को नौकरशाह एक ऐसे सेनापति की तरह चाहिए जो उनकी रक्षा हर क़ानूनी एवं गैरकानूनी कार्य में करे न की वो नौकरशाह समाज एवं जनता की रक्षा करे।

उदहारण के तौर पर सपा नेता नरेन्द्र भट्टी ने एक जनसभा को संबोधित करते हुए डंके की चोट पे कहा की उन्होंने श्रीमती दुर्गाशक्ति नागपाल को मात्र 41 मिनट में बर्खास्त करा दिया और वही पे उपस्थित आम जनता उनका ताली  बजा कर उनके इस बात पर गर्व महसूस कर रही थी, मेरे कहने का मतलब ये है की हम सब भी कही न कही इस समाज को दूषित करने में अपना योगदान दे रहे  है वरना पहले जहा उस गाँव के निवासी खुद ही कबूल  कर रहे थे की श्रीमती नागपाल ने कुछ भी गलत नहीं किया वही आज वो चन्द सियासत के ठेकेदारों के कहने पे घटना की पूरी जिम्मेदारी श्रीमती नागपाल पे लगा रहे है.

जिस गाँव में बिजली,सड़क, पानी एवं शिक्षा जैसी मुलभुत सुविधाओं का आभाव है वहा की जनता इन सब के बजाये मस्जिद जैसी समस्याओ पे अपना ध्यान केन्द्रित कर रही है, आज जरुरत है हमें एक ऐसे समाज की जो प्राथमिकताओं को समझे और ऐसे अराजक तत्व  जो राजनीती एवं हर उस क्षेत्र में अपनी पकड़ बना चुके है उन्हें जड़ से उखाड़ कर फेक दे और इस सभ्य समाज में
 निर्भीक एवं कर्मथ्य अधिकारियो को अपना काम स्वतंत्रता से करने का मौका दे तभी इस समाज और इस देश का कल्याण होगा और हम प्रगति के रस्ते पे प्रसस्त होंगे क्योंकि समाज के  विकास से ही देश  विकसित करेगा।


अंशुमन श्रीवास्तव

Sunday 28 July 2013

MID DAY मौत



आज  मै उन २३  बच्चो  की अस्मक मौत के प्रति अपनी संवेदना ठीक उसी तरह व्यक्त  कर रहा हु जैसे मैंने उस दिन की थी जिस दिन ये घटना घटी थी.बस आज indian express की कवरेज पर फिर से मेरे अन्दर उसी दुःख का संचार हो गया है. 

चुकि घटना मेरे राज्य की है और उसपे भी मेरे अपने घर से कुछ किलोमीटर की दुरी पर है तो मानसिक अशांति कुछ ज्यादा ही है और जिस प्रकार इंडियन एक्सप्रेस के संतोष सिंह ने इस घटना पर अपनी ये रिपोर्ट प्रकाशित की है उसको पढने के बाद मेरे मन में यही विचार आया की जिम्मेदार चाहे जो कोई भी हो उसे पकड़ने के बाद भी हमारे कानून एवं समाज में इतनी शक्ति नहीं जो न्याय कर सके भले ही उन दोषियों को फाँसी की ही सजा क्यों न हो जाये इससे भी उन २३ मासूम की आत्मा को शांति नहीं  मिलने वाली है .  

आज की हमारी राजनीति हर उस घटना के लिए  जो समाज को नुकसान पहुचाती है कही कही जरुर जिम्मेदार है और छपरा में हुए इन मासूमो की मौत का कारण भी यही है, और इससे हम अपना मुह नहीं  मोड़ सकते।
गौर करने वाली बात है ये घटना तभी होती है जब सूबे के  मुख्यमंत्री अपने स्वास्थ के कारण अवकाश पर है और विपक्ष के नेता अपने पार्टी को संघठिक करने में लगे है, और इनसब घटनाओ से सीधा फ़ायदा किस राजनीतिक दल का होने वाला है इस बारे में सब जानते है ,

आज की जनता इतनी बेवकूफ नहीं है जो की ये न समझे की मिड डे मील में हानिकारक pesticides किसी इन्सान की गलती से पड़ सकता है  और जबकि उसि पानो देवी जो की उस स्कूल की रसोइया है अपने २ बच्चो को उसी खाना को खाने की वजह से खो चुकी है और जिनका एक बेटा आज भी PMCH में जिंदगी और मौत के बीच संघर्ष कर रहा है . 

आज जरुरत है हमें एक इच्छा सक्ति की  जो कही न कही उन राजनीति के ठेकेदारों के मुह पर एक तमाचे की तरह लगे और वो अपनी इस तरह की अमानवीय घटनाओ से पीछे हटे . हम भी कही न कही इनसब घटनाओ को सरकार की नाकामी की तरह  से देखते है और देखना भी चाहिए लेकिन एक अंधे दर्शक की तरह नहीं अपितु  एक जागरुक नागरिक की तरह जो सच एवं झूठ में अंतर कर सके . हमें उन सभी राजनीतिक दलों के हाथो  की कठपुतली बनने से बचना चाहिए . मै  अभी भी इन विषयों पर आशावादी हु और अगर हम जितनी जल्दी इस सच को समझ ले उसी में हमारी भलाई है. 


अंशुमन श्रीवास्तव 

Saturday 27 July 2013

आज की पत्रकारिता

मीडिया हमारे  समाज में हमेशा से एक महत्वपूर्ण स्थान रखता आया है. इसे प्रजातंत्र का चौथा स्तःम्ब भी कहा गया है, और आज के टीवी युग में हमारे दिमाग पे  असर डालने का काम मीडिया बहुत अच्छे रूप से कर रहा है . आज प्रिंट मीडिया जंहा अपने आप को बचने का बहुत प्रयास करने में लगा है  टेलीविज़न की दुनिया अपने सबसे निचले स्तर पे पहुच गई है ,
आज कल की पत्रकारिता NDTV के रविश कुमार के अनुसार अपने leutean जोन में जी रही है ,जो संसद के उन चार किलोमीटर के एरिया में पनपती है और पुरे देश को गुमराह करने में लग जाती है.

आज पत्रकारिता की विश्वसनीयता पे सवाल खड़ा हो रहा है,जहा बड़े बड़े कॉर्पोरेट घराने अपनी जिम्मेदारी से इस कदर मुह मोड़ लेते है जैसे कोई सौतेली माँ अपने बच्चो से!!!आज पत्रकार को इस कदर कैद कर लिया जाता है जैसे वो तिहार जेल में बंद हो, संपादक से भी बड़े उन न्यूज़ चैनल्स के मालिक हो गए है जो अपनी राज्य सभा की सीट के लिए अपने देश और इस समाज से सच को छुपाने और झूठ को दिखने का काम  करते है .

आज जरुरत है उस leutean जोन से बहार आने की, एक विश्वसनीय न्यूज़ दिखाने की और साथ में एक परिपक्व विषयवस्तु चुनने की जिससे हमारे जैसे युवा राजनीति एवं भारत के समाज की सच्ची तस्वीर देख सके जिन्हें उनको बनाने की जिम्मेदारी देने की बात आज का समाज करता है.

विषयवस्तु एक न्यूज़ चैनल की बेहद अहम चुनाव होता है,हम जैसे युवा न्यूज़ देख कर अपनी मानसिकता की धरना बदलते रहते है ,और इसी वक़्त हमे जरुरत होती है एक ठोस नीव की जो हमारे सामाजिक और मानसिक विकास को और परिपक्वता की तरफ ले जाये अपितु हम आज रणबीर-कटरीना के रोमांस को ज्यादा ध्यान से देखते है और पढते है, इन्ही सब की वजह से हम युवा राजनीति से दूर हुए जा रहे है.

कांग्रेस के उपाधय्छ से लेकर बीजेपी का युवा मोर्चा सभी युवा समाज को अपने तरफ करने के प्रयासरत है ,
चाहे वो नरेन्द्र मोदी का demography dividend की बात हो लेकिन ये सब वय्रथ है अगर सरकार के साथ साथ मीडिया अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटे.

बहुत मेरी इस बात से इतेफाक नहीं रखते होंगे लेकिन आज जरुरत है मीडिया की विश्वसनीयता बनाये रखने के लिए सरकार कुछ ठोस कदम उठाये जिससे ये साडी चीजे कुछ सुधर जाये


अंशुमन श्रीवास्तव।