Sunday 12 June 2016

सैराट -एक यथार्थ

एक खूबसूरत एहसास बेआवाज हो गया..
इश्क अब इश्क ना रहा जैसे रिवाज़ हो गया
आज सैराट देखी , नागराज ने सैराट को ऐसा बनाया है जो ख़त्म होने के बाद भी आँखो के सामने तैर रहा है ।आर्ची और परश्या की प्रेम कहानी न सिर्फ महाराष्ट्र के एक कस्बे तक सीमित है अपितु ये हर जगह है जहाँ जहाँ ऐसी प्रेम कहानियाँ एक छीतीज  को प्राप्त करने मे समाजिक द्वेष से असफल हो जाती है ।
फिल्म मे समाजिक बिंदुओं क समावेश इतनी बारीकी से किया  गया है की व्यस्त्विक पटल पर ये फिल्म अपने अंदर हर उस दर्शक को समा लेने का दम रखती है जो समाजिक संरचना के दुष्परिणाम से कभी न कभी पीडित हुआ है ।
आंकड़े बताते है कि देश मे हर साल 2000 से ज़्यदा मौतें ऑनर किलिंग से होती है सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्यों मे हरियाणा ,पश्चमी उत्तरप्रदेश,महाराष्ट्र ,पंजाब शामिल है ।लेकिन अफ़सोस तो इस बात का है कि जो समाज सबको साथ लेकर चलने कि बात करता है वहीँ ऐसी परिस्थितयों मे ऊन नवजवान लड़के लड़कियों कि जान लेने से भी पीछे नहीँ हटता ।
फिल्म मे यही दिखाया गया है कि आज भी एक मछुआरे के बेटे को एक पाटिल खानदान कि लड़की से प्यार करने का कोई हक नहीँ ! समाजिक मूल्य इतने बदल रहे है उसके पश्चात भी समाजिक कलह अपनी जगह वहीँ जमाये हुए है और उसके फलस्वरूप आज भी एक समाजिक रूप से प्रतिष्ठित व्यक्ति अपने रौब और दमखम से परश्या  के परिवार को समाजिक रूप से बेदखल करने मे सक्षम है, इससे ज़्यादा पीडादायक है समाज के लोगो का मूकदर्शकों जैसा व्यवहार ।
इस फ़िल्म का संगीत सही मायने मे दिल को छूता है अजय-अतुल ने सिम्फॉनि की धुनों से ऐसा जादू बिखेरा है जो पूरी  फ़िल्म को बाँध कर रखता है । ऐसी फिल्में ना सिर्फ़ मनोरंजन की दृष्टि से उपयुक्त है अपितु हमारे आसपास के समाजिक मूल्यों और साथ ही उनकी कूप्रवृतिओं को भी हमारे सामने प्रकट करती है ।
फ़िल्म ने रिलीस होने के एक महीने के बाद भी सिनेमाघरों मे अभी भी धूम मचा रही है , जिस रफ़्तार से फ़िल्म कमाई के सारे रेकॉर्ड को ध्वस्त किये है उससे तो ऐसा ही लगता है कि जल्द ही ये फ़िल्म 100 करोड़ के आंकड़े को पार कर जायेगी
ऐसी फिल्में ज़रूरी है देखी जाए वरना क्या पता हम समाजिक यथार्थ से परे रहे ।
अंशुमन श्रीवास्तव

Friday 4 March 2016

शर्मसार होती सियासत

                                                   कैसे मंजर सामने आने लगे है
                                                  गाते गाते लोग चिल्लाने लगे है।

पिछले कुछ दिनों की घटनाओ पर अगर ध्यान दिया जाए तो हम जिस  दिशा में बढ़ रहे है उसका  अंदाज़ा किसी को भी नहीं है । हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या निश्चित ही दुखदायक है लेकिन जिस प्रकार उस मुद्दे पे सियासत हो रही है क्या वो कम दुखदायक है? एक दलित समुदाय का लड़का अगर यूनिवर्सिटी प्रशाशन से दुखी हो कर  इतना बड़ा कदम उठा लेता है तो क्या ये समाज की जिम्मेदारी नहीं बनती की आगे ऐसा न हो क्या वो ये नहीं सोच सकते कि चलो इस बार जो गलतिया हुई उससे हम सबक लेंगे और  अगली बार से किसी भी समाज का विद्यार्थी  चाहे  वो दलित हो आदिवासी हो अल्पसंख्यक हो या किसी  भी धर्म,जाति अथवा वर्ग का क्यों न हो ऐसा कुछ उसके साथ न होने पाये ।लेकिन इसके उलट ये हमारे देश की राजनेतिक व्यस्था का श्राप ही है  जिससे इस मुद्दे पर  हर कोई राजनैतिक रोटिया सेकने पे लगा है सब अपने आप को दलित हितैषी बताने की होड में है और सच ये है की किसी को रोहित की नहीं पड़ी एवम् तमाम ऐसे और विद्यार्थियो की नहीं पड़ी जो आने वाले समय में रोहित के नक़्शे कदम पर चलने को विवश होंगे ।


शर्म आनी चाहिए जिस प्रकार से तमाम राजनेतिक दल इस धरातल स्तर का उदाहरण देश के सामने प्रस्तुत कर रहे है । होना हो तो ऐसा की सब इस मुद्दे को एक सुदृढ़ मुद्दे की तरह देख कर संसद में कुछ ऐसा कानून पारित करते की कोई भी आगे से रोहित जैसा असहाय न हो । उन्हें एक ऐसी सामजिक संरचना का निर्माण करना चाहिए जिसमे इस प्रकार की कोई भी बात का जल्द से जल्द निवारण हो सके लेकिन न हमारे राजनेता इतने संवेदनशील है और न ही हमारी मीडिया।

बड़े दुःख के साथ ये कहना पड़ता है की आज मीडिया पर शक हो रहा है । आज जनधारणा ये बन गयी है की ये चैनल अथवा अखबार कांग्रेस वाला है ये चैनल या अख़बार भाजपा वाला ! कोई भी निस्पक्ष रूप से किसी भी खबर को नहीं दिखा रहा है और सबसे दुःख की बात ये है की वो चैनल्स भी उनपर लगे आरोपो को दिन प्रति दिन प्रमाड़ित करते जा रहे है।आज मीडिया का हर तबका किसी न किसी खास विचारधारा को प्रेरित है बल्कि उसे प्रोत्शाहित भी कर रहा है और उसके परिणाम स्वरुप एक दूसरे को निशाना बना कर आपसी संघठन में भी फूट पाड़ रहा है , निश्चित ही इस  समय भारत अपने इतिहास के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा है।


पिछले दिनों JNU के छात्रसंघ के अध्य्क्ष कन्हैया  कुमार के साथ जो कुछ भी हुआ या JNU के घटनाक्रम पर जिस प्रकार से राजनीति हुई जो बिलकुल अशोभनीय है । एक कार्यक्रम जिसमे देशविरोधी नारे लगे वो गलत है चाहे वो किसी भी विचारधारा का समर्थन क्यों न करते हो ? लेकिन जिस प्रकार से इसे प्रोत्शाहित किया गया वो निश्चित ही निम्न स्तर  की राजनीति को बढ़ावा देता है क्युकी  इस  मुद्दे पर  भारतीय संसद के मुख्य विपक्षी दल के उपाध्यक्ष का जाना बिलकुल अनुचित है  और उससे भी ज्यादा दिल्ली के मुख्यमंत्री का वहां जाना । देशद्रोह का ये मामला न्यायलय के विचाराधीन है और पुलिस एवं प्रसाशन इसे अदालत की निगरानी में जांच कर रहे है तो फिर कसी को भी इस मुद्दे में दखल देने का कोई हक़ नहीं है। 



 इसलिए  अगर कुछ भी गलत या सही हो रहा है उसे न्याय दिलाने  काम अदालत करेगा आप उसमे अपनी राजनीती चमका रहे हो ये सरासर गलत है!!
आप विपक्ष में हो सरकार का विरोध करते हो तब आपका ये दायित्व है अगर कोई मुद्दा जो न्यायलय के अंतर्गत नहीं है तो आप उस मुद्दे को जनता के सामने ले जाओ सरकार को लताड़ो लेकिन वो भी मर्यादा में रह कर राष्ट्र प्रेम को बनाये रखते हुए। 
 यही हमारे संविधान की विशेषता है  और आशा करूँगा की ऐसा करते हुए मै  एकदिन आप सब को जरूर देखु।

अंशुमन श्रीवास्तव