Saturday 29 March 2014

" सियासत में उलझे केजरीवाल "

इस मौसम कि मिसाल दूँ  या तुम्हारे मिजाज कि ,
कोई पूछ बैठा है बदलना किसे कहते है। 

आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली  के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बारे में ज्यादातर उच्च माध्यम वर्गीय श्रेणी के लोग यही छवि अपने मन में बना कर बैठे है, उन लोगो को समझ में नहीं आ रहा है कि जो केजरीवाल कांग्रेस के भ्रस्टाचार के खिलाफ हुए आंदोलन कि कोख़ से उपजी हुई पार्टी बनायीं और अपने वादो कि लम्बी फेहरिस्त बना कर चुनावी घमासान में कूदी वही पार्टी पर्याप्त बहुमत न होते हुए भी जब कांग्रेस ने समर्थन का राजनीतिक दाव खेला तो उसमे कैसे फँस गई।  पहली गलती को लोग उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता के तौर पर देख ही रहे थे कि अचानक अरविन्द ने 49 दिन कि सरकार छोड़ कर चले गए। 

भले ही उनका मकसद सही हो लेकिन राजनीती में टाइमिंग का बहुत बड़ा किरदार होता है जो केजरीवाल टाइमिंग के इतने बड़े खिलाडी थे अब टाइमिंग के कारन ही बैकफूट पर दिख रहे है, मै  निजी तौर पर अरविन्द और उनकी मंशा का बहुत बड़ा प्रसंसक रहा हूँ मगर कही न कही केजरीवाल ने जो किया उसका असर दिख रहा है, आज हम भले हम ओपिनियन पोल कि विश्वसनीयता पर हम संशय करे लेकिन कही न कही आप और अरविन्द अपनी जमीं खो रहे है। 

अरविन्द भले ही इस राजनीती कि बिसात के नए खिलाडी हो लेकिन है तो एक IITian  उन्हें पता है कि उच्च मध्यम  वर्गीय श्रेणी जो कि इस चुनाव में 35 से 40 प्रतिशत का वोट रखती है उनसे ख़फ़ा है और वो इसी ख़ाली  पड़े वोटो कि भरपाई अल्पसंख्यक वोटो से कर रहे है इसी के मद्देनजर उनका विरोध का पूरा फ़ोकस  अब नरेंद्र मोदी पर आ गया है उन्हें पता है कि मोदी कि छवि को लेकर अल्पसंख्यक समाज किसी गैर भाजपा दल कि तरफ भागेगी और जबकि सपा पर मुज्जफरनगर दंगो का आरोप है और कांग्रेस पर उनके साथ विश्वासघात का आरोप है तो इसमें अरविन्द और उनकी पार्टी मुस्लिम वोटरो के लिए एक पसंद बन सकती है और इसी कोशिश में अरविन्द केजरीवाल लगे हुए है। 

पार्टी कि इसी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए केजरीवाल खुद बनारस से चुनावी मैदान में उतरे है ,भले ही वो इस चुनाव में हार जाये परन्तु इससे वो मुस्लिम समाज में एक  नए मसीहा बन कर आने कि कोशिश कर रहे है इसमें वो कितना सफल हो पाते है ये तो वक़्त ही बतायेगा परन्तु आज केजरीवाल जिस कीचड़ को साफ़ करने इस चुनावी राजनीती में कूदे अब वो खुद इस कीचड़ में सने नजर आ रहे है और इसकी वज़ह मै केजरीवाल कि टीम को मानता हूँ। दिल्ली चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी के सभी बड़े नेता खुद को केजरीवाल कि तर्ज पर आगे बढ़ाते हुए लोकसभा में हाथ आजमाने उतर पड़े मगर जब उन्हें ये अहसास हुआ कि केजरीवाल के बिना उनकी राजनीतिक मंशा कभी पूरी नहीं हो सकती तो उन्होंने केजरीवाल को ये अहसास कराया कि अगर उनकी पार्टी विधानसभा में इतना अच्छा प्रदर्शन कर सकती है तो लोकसभा में क्यों नहीं ? इसी प्रश्न में उलझ कर केजरीवाल दिल्ली को उलझाकर कर बनारस और मोदी को साधने और अपनी पार्टी को सुलझाने निकल पड़े। 

इन सब पे तो मै  इतना ही कहूँगा 

तेरी ज़ुबान है झूठी  जम्हूरियत कि तरह ,
तू एक जलील सी गाली से बहतरीन नहीं। 
अरविन्द तो इस लेख को जब पढ़ेंगे तब पढ़ेंगे  हमारे जैसे चंद आम लोग बस लिख सकते है, और आप पढ़ कर सिर्फ मुस्कुरा सकते है। 

अंशुमान श्रीवास्तवा।

Saturday 8 March 2014

" कीचड़ कमल और चाय"

पिछले एक साल से चुनावी गतिविधियो पर गौर करे तो पाएंगे कि इस राजनीतिक बयार में सिर्फ तीन चीजे उडी और वो थी कीचड़,कमल और चाय और जो सख्श इन सब से जुड़ा वो अब सबसे आगे खड़ा है भारत कि सबसे बड़ी कुर्सी पर विराजमान होने के लिए अब जबकि लोकसभा चुनाव के लिए ईवीएम पर पहला बटन दबने में सिर्फ एक महीना बचा है, एक बात साफ होती जा रही है कि इस चुनाव को अमेरिका की तर्ज पर राष्ट्रपति चुनाव जैसा बनाने की बीजेपी की रणनीति काफी हद तक कामयाब हो गई है। चाहे कांग्रेस जैसा राष्ट्रीय दल हो, या फिर समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी जैसे क्षेत्रीय दल या फिर आम आदमी पार्टी जैसे नए दल, सबके निशाने पर नरेंद्र मोदी हैं। बीजेपी और नरेंद्र मोदी के लिए इससे बेहतर हालात नहीं बन सकते थे।
यूपीए सरकार के कामकाज का 10 साल का लेखा-जोखा कहीं पीछे छूटता दिख रहा है। सूचना, खाद्य, शिक्षा के अधिकार या फिर भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकार के ऐतिहासिक फैसले। सामाजिक सुरक्षा की कई योजनाओं पर उसकी कामयाबी। महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर उसकी नाकामी, बिगड़े आर्थिक हालात, गिरती विकास दर, बढ़ती बेरोजगारी, फैसले न ले पाने से पंगु सरकार की बनी छवि, पड़ोसी देशों से खट्टे रिश्ते जैसे तमाम महत्वपूर्ण मुद्दे पृष्ठभूमि में चले गए लगते हैं।
ऐसा लग रहा है चुनाव यूपीए सरकार के 10 साल के प्रदर्शन पर नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी के 12 साल के गुजरात में शासन के आधार पर हो रहा है। करीब डेढ़ साल पहले जब बीजेपी में नरेंद्र मोदी की उम्मीदवारी पर चर्चा शुरु हुई थी, तब पार्टी के रणनीतिकारों की सोच यही थी। उन्हें यह अंदाजा था कि नरेंद्र मोदी का नाम लेते ही विशेष किस्म का ध्रुवीकरण होने लगता है। चाहे पार्टी के विरोधी इसे सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण का नाम दें, लेकिन आम लोगों में उन्हें लेकर पसंद या नापसंद बिल्कुल साफ हो जाती है। जिन्हें फ्लोटिंग वोट कहा जाता है, वैसे मतों की संभावना मोदी के नाम पर समाप्त हो जाती है। लोग या तो उन्हें वोट देंगे या उनके खिलाफ देंगे।
रणनीतिकारों का यह भी आकलन रहा था कि कुछ क्षेत्रीय दल, जो अब तक गैरकांग्रेसवाद के नाम पर बीजेपी के साथ चले आते थे, कई नए कारणों से बीजेपी के साथ जुड़ने का रास्ता ढूंढेंगे। ऐसे क्षेत्रीय दल, जिन्हें मोदी की हिंदुत्व के पोस्टर बॉय की छवि के कारण अपने मुस्लिम वोटों के छिटकने का डर रहेगा, वे चुनाव के बाद बीजेपी के साथ आने में जरा भी नहीं हिचकिचाएंगे।
लोकसभा चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव जैसा बनाने से यह फायदा होगा कि बीजेपी मोदी की लोकप्रियता का सीधे-सीधे फायदा उठा सकेगी। मोदी के नाम से दक्षिण भारत के कुछ राज्यों में बीजेपी के मत प्रतिशतों में संभावित वृद्धि के मद्देनजर पार्टी को वहां नए सहयोगी बनाकर अपना जनाधार बढ़ाने में आसानी होगी। सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील यूपी और बिहार जैसे राज्यों में मोदी के चेहरे को आगे रख हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण किया जा सकेगा।
बीजेपी के रणनीतिकारों की यह योजना अभी कम से कम जनमत सर्वेक्षणों और विपक्षी दलों में मचे हड़कंप से तो कामयाब होती दिख रही है। जैसे अगर यूपी की बात करें, तो समाजवादी पार्टी सुप्रीमो अपनी बड़ी रैली उसी दिन करते हैं, जिस दिन मोदी की बड़ी रैली होती है। जबकि मायावती को मोदी पर व्यक्तिगत हमले करने में भी परहेज नहीं रहा।
बिहार में रामविलास पासवान को साथ लेकर बीजेपी ने लालू और नीतीश दोनों के समीकरणों को बिगाड़ दिया है। लालू का हमला नीतीश के बजाए मोदी पर केंद्रित हो गया है, तो वहीं नीतीश को प्रधानमंत्री बनने की अपनी महत्वाकांक्षा को सार्वजनिक करना पड़ा है, ताकि लोकसभा चुनाव के लिए बिहार के लोगों से वोट मांगने को सही ठहरा सकें।
दक्षिण भारत में भी कुछ ऐसा ही हुआ है। बीजेपी की ताकत वाले इकलौते राज्य कर्नाटक में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के नाम पर पार्टी से अलग हुए बीएस येदियुरप्पा और बी श्रीरामुलु साथ आ गए हैं। वहीं तमिलनाडु में मोदी के नाम पर बीजेपी के वोटों में बढ़ोतरी की संभावना के मद्देनजर डीएमडीके, एमडीएमके, पीएमके और बीजेपी का एक बड़ा गठबंधन बनने जा रहा है, जिसका लक्ष्य 30 फीसदी से अधिक वोट हासिल करना है।
आंध्र प्रदेश में पूर्व केंद्रीय मंत्री और एनटी रामाराव की बेटी पुरुंदेश्वरी बीजेपी में शामिल हो गई हैं। टीडीपी के साथ बीजेपी के तालमेल की संभावना बनी हुई है और टीआरएस ने कांग्रेस में विलय न करने का फैसला कर बीजेपी के साथ आने का रास्ता खुला रखा है।
ममता बनर्जी, जयललिता, एम करुणानिधि, नवीन पटनायक जैसे क्षेत्रीय क्षत्रपों को छोड़ उत्तर भारत के सभी क्षेत्रीय नेता नरेंद्र मोदी के खिलाफ हमले करने में कांग्रेस के साथ हो गए हैं। राहुल गांधी खुद मोदी पर कुछ नहीं कहते हैं, लेकिन भिवंडी में एक सभा में जिस तरह से उन्होंने महात्मा गांधी की हत्या के लिए आरएसएस को जिम्मेदार बताया, उससे उनकी रणनीति का इशारा भी मिलता है। बीजेपी में मोदी विरोधी दलील देते थे कि मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने से चुनाव में सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता मुद्दा बन जाएगा। राहुल के बयान से कुछ ऐसा ही इशारा मिला है।
इस बीच, आम आदमी पार्टी ने भी अपना पूरा ध्यान मोदी पर केंद्रित कर दिया है। अरविंद केजरीवाल इन दिनों गुजरात के दौरे पर हैं और उन्होंने मोदी से कड़वे सवाल पूछकर मोदी के विकास के दावों पर सवाल उठाए हैं, जिनका जवाब उन्हें नहीं मिला।
कामयाबी हासिल करने के लिए मोदी की रणनीति यही रही है कि सारे विरोधी इकट्ठे होकर उन पर हमले करें। अब ऐसा ही हो रहा है। लेकिन उन्हें ये ध्यान रखना होगा कि अब यह लोकसभा चुनाव मोदी बनाम राहुल नहीं, बल्कि ‘मोदी बनाम सब’ का हो गया है और इसमें नाकामी का मतलब है उनकी व्यक्तिगत हार।

आज हर राजनीतिक दल और हर राजनेता मोदी को ध्यान  में रख कर अपना भाषण लिखते है और मोदी इन सब से ऊपर उठ कर अपना लिखते है जिसकी वजह से सब मचल जाते है आज ही सलमान खुर्शीद एक  बार फिर मोदी पर निशाना साधते हुए कहा है कि वे विभिन्न प्रदेशों का पहवाना, पगड़ी और साफा तो पहनते है पर उन्हें एक छोटी सी टोपी से परहेज है।दिक्कत इन नेताओ कि नहीं है दिक्कत है मोदी कि जो अब ये साफ़ तौर पर समझ चुके है कि वो भारत के अगले प्रधानमंत्री बनने जा रहे है।  और जितना ये दल और उनकें  नेता उनपे कीचड़ फेंकेंगे उतना कि कमल और खिलेगा तो मोदीजी बधाई हो आपके 272+ के लिए आपसे बड़ा कोई नेता इस चुनाव में नहीं दिखता  सब आपके नमो चाय के आगे फीके है बस  इस चाय में शक्कर कि मात्रा का ध्यान रखियेगा वरना वो आपे घर के सबसे बड़े वाले बूढ़े वाले भीस्म पितामह आपको अपने ही चाय से बीमार न कर दे वैसे राजनीती है कुछ भी हो सकता है इसलिए मैं थोडा बहुत घबराता हूँ क्युकी वो बड़े वाले बहुत घाग है वैसे आपकी भी तैयारी कमाल कि है पहले उनकी महत्वाकांक्षी कुर्सी पर बैठने वालो में आप सबसे आगे निकल आये और अब उनकी सीट भी उनसे आपने हथिया लेंगे ऐसा लगता है वाह राजनीती हो तो ऐसी।


अंशुमान श्रीवास्तवा

" बुरा न मानो भाई होली आने वाली है"


















अंशुमान श्रीवास्तवा