इस मौसम कि मिसाल दूँ या तुम्हारे मिजाज कि ,
कोई पूछ बैठा है बदलना किसे कहते है।
आम आदमी पार्टी के संयोजक एवं दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के बारे में ज्यादातर उच्च माध्यम वर्गीय श्रेणी के लोग यही छवि अपने मन में बना कर बैठे है, उन लोगो को समझ में नहीं आ रहा है कि जो केजरीवाल कांग्रेस के भ्रस्टाचार के खिलाफ हुए आंदोलन कि कोख़ से उपजी हुई पार्टी बनायीं और अपने वादो कि लम्बी फेहरिस्त बना कर चुनावी घमासान में कूदी वही पार्टी पर्याप्त बहुमत न होते हुए भी जब कांग्रेस ने समर्थन का राजनीतिक दाव खेला तो उसमे कैसे फँस गई। पहली गलती को लोग उनकी राजनीतिक अनुभवहीनता के तौर पर देख ही रहे थे कि अचानक अरविन्द ने 49 दिन कि सरकार छोड़ कर चले गए।
भले ही उनका मकसद सही हो लेकिन राजनीती में टाइमिंग का बहुत बड़ा किरदार होता है जो केजरीवाल टाइमिंग के इतने बड़े खिलाडी थे अब टाइमिंग के कारन ही बैकफूट पर दिख रहे है, मै निजी तौर पर अरविन्द और उनकी मंशा का बहुत बड़ा प्रसंसक रहा हूँ मगर कही न कही केजरीवाल ने जो किया उसका असर दिख रहा है, आज हम भले हम ओपिनियन पोल कि विश्वसनीयता पर हम संशय करे लेकिन कही न कही आप और अरविन्द अपनी जमीं खो रहे है।
अरविन्द भले ही इस राजनीती कि बिसात के नए खिलाडी हो लेकिन है तो एक IITian उन्हें पता है कि उच्च मध्यम वर्गीय श्रेणी जो कि इस चुनाव में 35 से 40 प्रतिशत का वोट रखती है उनसे ख़फ़ा है और वो इसी ख़ाली पड़े वोटो कि भरपाई अल्पसंख्यक वोटो से कर रहे है इसी के मद्देनजर उनका विरोध का पूरा फ़ोकस अब नरेंद्र मोदी पर आ गया है उन्हें पता है कि मोदी कि छवि को लेकर अल्पसंख्यक समाज किसी गैर भाजपा दल कि तरफ भागेगी और जबकि सपा पर मुज्जफरनगर दंगो का आरोप है और कांग्रेस पर उनके साथ विश्वासघात का आरोप है तो इसमें अरविन्द और उनकी पार्टी मुस्लिम वोटरो के लिए एक पसंद बन सकती है और इसी कोशिश में अरविन्द केजरीवाल लगे हुए है।
पार्टी कि इसी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए केजरीवाल खुद बनारस से चुनावी मैदान में उतरे है ,भले ही वो इस चुनाव में हार जाये परन्तु इससे वो मुस्लिम समाज में एक नए मसीहा बन कर आने कि कोशिश कर रहे है इसमें वो कितना सफल हो पाते है ये तो वक़्त ही बतायेगा परन्तु आज केजरीवाल जिस कीचड़ को साफ़ करने इस चुनावी राजनीती में कूदे अब वो खुद इस कीचड़ में सने नजर आ रहे है और इसकी वज़ह मै केजरीवाल कि टीम को मानता हूँ। दिल्ली चुनाव के बाद आम आदमी पार्टी के सभी बड़े नेता खुद को केजरीवाल कि तर्ज पर आगे बढ़ाते हुए लोकसभा में हाथ आजमाने उतर पड़े मगर जब उन्हें ये अहसास हुआ कि केजरीवाल के बिना उनकी राजनीतिक मंशा कभी पूरी नहीं हो सकती तो उन्होंने केजरीवाल को ये अहसास कराया कि अगर उनकी पार्टी विधानसभा में इतना अच्छा प्रदर्शन कर सकती है तो लोकसभा में क्यों नहीं ? इसी प्रश्न में उलझ कर केजरीवाल दिल्ली को उलझाकर कर बनारस और मोदी को साधने और अपनी पार्टी को सुलझाने निकल पड़े।
इन सब पे तो मै इतना ही कहूँगा
तेरी ज़ुबान है झूठी जम्हूरियत कि तरह ,
तू एक जलील सी गाली से बहतरीन नहीं।
अरविन्द तो इस लेख को जब पढ़ेंगे तब पढ़ेंगे हमारे जैसे चंद आम लोग बस लिख सकते है, और आप पढ़ कर सिर्फ मुस्कुरा सकते है।
अंशुमान श्रीवास्तवा।
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