Sunday 29 November 2015

मीडिया पर सवाल क्यों नहीं??

                                   
                                       एक क़तरा जीत का जब पत्थर के होठो पे पड़ा
                                     उसके सीने में भी दिल धड़का मुर्दे में भी जान आ गई

बिहार चुनाव के नतीजे पूरी तरह से सामने आते आते श्री पुष्पेश पंत ने ये ट्वीट किया , जाहिर है जब पत्रकार देश का हाल शायराना अंदाज में बोलता है तो उसकी अभिव्यक्ति भी अभूतपूर्व हो जाती है लेकिन मेरी नजर उनके अगले पंक्ति पे थी जिसमे उन्होंने उपयुक्त लाइने कांग्रेस के संधर्व में कहीं ये सही है की रतलाम के लोकसभा उपचुनाव और बिहार के विधान सभा चुनाव के बाद कांग्रेस में एक ऑक्सीजन का संचार हुआ है । लेकिन जल्द ही श्री राहुल गांधी की फ़ास्ट वोटिंग तकनीक से कांग्रेस को एक बार फिर बैकफुट पर धकेल दिया।

 पत्रकार और पत्रकारिता सामजिक समरसता के ऐसे पेशे है जिनमे व्यक्ति अपने विचारो से देश को  एवं समाज  को एक ऐसा चश्मा  देता है जिससे हम जैसे आम नागरिक देख सके। और अब जब पत्रकारिता अपनी  आत्मा ख़त्म करने  की दिशा में  बहुत आगे बढ़ चुकी हो तो ये पेशा  मात्र एक अन्य पेशे जैसा बन कर रह गया है जो वाकई कॉर्पोरेट वर्ल्ड जैसा हो। आज हम सब अपने अपने पार्टी लाइन के अनुरूप अपने अपने चैनल्स एवं समाचार पत्र को पहचान चुके है हमें वही देखना और पढ़ना पसंद है जिसे हम पसंद करते हो जो की मान्य है लेकिन हम तब बेचैन हो जाते है जब हमें कुछ ऐसा सुनने और देखने को मिल जाता है जिसे हम अलग हो या फिर हम जिसे जानबूझ कर अनजान बनने की कोशिश करते है ।  बात यही पे आ कर थम जाती है की आज सामजिक विभाजन  का एक कारण अगर हम मीडिया को माने तो इसमें कोई दो राय नहीं होगी। दादरी के कांड पर मीडिया भी उतनी ही दोषी है जितनी वो नपुंसक भीड़।

मीडिया की भूमिका ऐसे मोर्चो पे और जिम्मेदारी भरा होना चाहिए था लेकिन अफ़सोस है की TRP के बोझ तले दबी और कुछ चुनिंदा मालिको के आकांक्षाओ के आगे बेबस मीडिया सामाजिक समरसता को  तार तार करने में कोई कसर  नहीं छोड़ी है ।  मुझे आपत्ति है की दादरी की उन विषम परिस्थितियों में आप क्यों ऐसे लोगो के पास जाते हो जो सिर्फ आग़ उगलने का काम करते हो ,आज़म खान , गिरिराज सिंह , साक्षी महाराज जैसे चुनिंदा नेता है जो सिर्फ और सिर्फ ऐसे मौको की आढ़ में अपना मतलब साधने में लगे रहते है और आप और आपका चैनल या अख़बार  उन्हें एक ऐसा स्पेस देता है जिसमे वो जो मर्जी हो कह सकते हो वो भी बिना किसी रोकटोक के , क्या आपका समाज के प्रति कोई दायित्व नहीं है, क्या आप ऐसे लोगो की उपेक्षा नहीं कर सकते।

बिलकुल कर सकते है, अगर आप ठान ले तो ऐसे नेता एक कुएँ का मेढक बन के दम तोड़ देंगे और देश को ऐसे बयानों से मुक्ति मिलेगी लेकिन अगर ऐसा हो गया तो आप ब्रेकिंग न्यूज़ के नाम पे २४ घंटे का चैनल नहीं चला पाएंगे धन नहीं बना पाएंगे।  और फिर कॉर्पोरेट कल्चर का भी तो सवाल है।

अंधेरो को रोकने के लिए एक किरण काफी है और उस किरण की उम्मीद मुझे हमेशा रहेगी देखना होगा कब तक और किस हद तक हमें और शर्मिंदा होना बाकि है कभी न कभी तो ऐसा वक़्त जरूर आएगा जब हमारी  मीडिया जरूर सोचेगी -
                                               अपने होने का कुछ एहसास  न होने से हुआ
                                                 ख़ुद से मिलना एक शख़्स से खोने से हुआ
आशा है वो शख़्स को खोने से पहले एहसास हो बाकि आशावादी तो हमेशा रहूँगा ही मैं।

अंशुमान श्रीवास्तव