Tuesday, 10 September 2013

मुज़फ्फर=जीत ?? या हार

उर्दू में मुज़फ्फर का अर्थ होता है जीत और शायद 1633 में शाहजहां ने इस शहर का नाम रखते वक़्त यह न सोचा होगा की वहाँ आज सिर्फ और सिर्फ हार होगी ,ज़िन्दगी की हार समाज की हार मजहब की हार, और आम आदमी की हार वहाँ  जीत है तो सिर्फ सियासत के चन्द ठेकेदारों की जो अपने आप  को किसी खास समुदाय का अघोसित नेता मान  बैठते है और हम भी कही न कही उन्ही ठेकेदारों के इशारों  पर कठपुतली सरीखे नाचने लगते है मगर वास्तव में ये हम भूल जाते है की "सियासत का दुपट्टा किसी की आखों  से बहते अश्क से कभी नम नहीं होता " वो समाज के दलाल न आज तक समाज का कुछ भला कर पाए है और न ही आगे करेंगे ये हमे समझना पड़ेगा।

पिछले 14 दिनों से मुज्जफरनगर दंगो की चपेट में है वहाँ  की सड़के आम नागरिकों की जगह सेना की चहलकदमी के तले रौंधी जा रही है वहाँ पर लगभग 1000 सेना के जवानों को तैनात किया गया है और कर्फ्यू के हिंसा प्रभावित क्षेत्रों में लगाया गया है  10,000 प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबल (पीएसी) के जवानों, 1300 से केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के सैनिक और 1,200 रैपिड एक्शन फोर्स (आरएएफ) के जवानों की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए तैनात किया गया हैं, फिर भी स्तिथि काबू में नहीं है पुरे  मुज़फ्फरनगर और उसके सटे इलाको में हिंसा की घटनाये आती जा रही है और प्रशाशन और पुलिस मात्र एक मूक दर्शक बन कर रह गए है। 

घटना की शुरुआत 27 अगस्त की है जब  एक दलित महिला को कथित तौर पर शामली में मुस्लिम युवाओं द्वारा बलात्कार करने की कोशिश किया गया , और इसके जबाब में  उन युवाओं की हत्या कर दी गई जिसके साथ ही मुजफ्फरनगर और शामली जिले में दो समुदायों के बीच छिटपुट संघर्ष की खबरे आई फिर इसी घटना की पृठभूमि में सियासी दलों के हस्तक्षेप के बाद ये एक विकराल दंगे का रूप ले लिया जिससे अभी तक 31 लोगो की मरने और करीब 40 लोगो की बुरी तरह से घायल होने की खबर आई है। 

पिछले साल सरकारी आकड़े कहते है की ऐसी  दंगे सरीके घटना करीब 410 के आसपास थी और इस साल हमने  इसमें काफी तरक्की की और सिर्फ अब तक ये आकड़ा 450 के पर पहुँच गया है और ये साल ख़त्म होने में अभी काफी समय बाकि है। मैं इस घटना को राजनीतिक दृष्टी से देखने की कोशिश करने के बिलकुल भी मुड  में नहीं हूँ अपितु पिछले 16 दिसम्बर को जो कुछ भी निर्भया के साथ हुआ कुछ ऐसा ही लगभग मुज़फ्फरनगर की उस दलित महिला के साथ हुआ मगर उसके विरोध करने के तरीके में दोनों में ज़मीन- आसमान का अंतर है, जहाँ दिल्ली में आम जनता की संवेदना पूरी तरह से निजी आधार पर थी वही मुज़फ्फरनगर की घटना में जनता की संवेदना पूरी तरह से मजहब के आधार पर तब्दील कर दी गई है और इसके लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं है जो आने वाले लोकसभा चुनाव के खातिर वोटों का ध्रुवीकरण करने में लगे है अपितु हम और आप जैसे लोग है जिन्हें सिर्फ और सिर्फ बटना  आता है और सिर्फ धरम के नाम तक सिमित नहीं है अपितु जात-पात पर भी हम एक दुसरे से नफरत करते है। 

पश्चिमी उत्तरप्रदेश का इलाका को अपनी सम्पन्नता और एकता के लिए कभी जाना जाता था वहां आज का हाल अपनी पुरानी स्तिथि से पूरा उलट है ,मेरठ जोन में जितने भी इलाके आते है उनमे जाटों का वर्चस्व बहुत ज्यादा है वहां आज भी मजहब से ऊपर बिरादरी होती है अथार्थ एक गाँव में डोमटोली,चमरटोली,बाबुटोली में आज भी हिन्दू मुस्लिम एक साथ रहते है मगर आश्चर्य की बात है की इस प्रायोजित दंगे  को करवाने में उन अराजक तत्वों ने सामाजिक ढाचे को तहस नहस करने में भी जरा भी देरी नहीं लगाई और आज आलम यह है की जिस इलाके में जो समुदाय ज्यादा तादात में है वहां वो दुसरे के घर को आग लगा रहा है और उसको पूरी से तबाह कर रहा है जिससे उसकी ज़िन्दगी किसी रेफ़्फ़ुजि की तरह से बितानी पढ़ रही है। 

अखिलेश सरकार को सत्ता में आये डेढ़ वर्ष हो चुके है और अबी तक वो 27 दंगो के गवाह बने है मेरा मानना है की सरकार जिसके पास सारे  संसाधन उपलब्ध है जो सक्षम है हर तरह से हर परिस्थिथि से गुजरने के लिए वो समय रहते कभी कोई कदम क्यों नहीं उठाती क्यों बार बार असम,किश्तवाड़ ,नवादा,बरेली और मुज़फ्फरनगर जैसे घटनाये होती है जिन्हें अगर सरकारे समय रहते रोक लेती तो वो निश्चित ही इतनी बड़ी कभी न बनती,ये बात हमें समझनी होंगी की हर दंगे के बाद असल राजनीती फ्रेम में आती है और हर दल अपने आप किसी न किसी समुदाय का हितैषी बनता है जिससे वो कथित रूप से अपने वोट बैंक में तब्दील कर देता है और हमारी राजनीती फिर से चल पड़ती हैं, ऐसी घटनाये क्या रोकी नहीं जा सकती? क्या ये इच्छाशक्ति की कमी की वजह से होती है? या राजनीतिक दल हर हर संभव तरीके से अपने वोट बैंक पर अपना ध्यान केन्द्रित रखते है ये समझने की जरुरत है। 

आशा करता हूँ जो आग लगी है उसपर भारतीय राजनीति पानी डालने का काम करे न की तेल डालने का वरना गंगा-जमुनी सभ्यता को संभालना बहुत मुश्किल हो जायेगा और हम और आप दोनों मिल कर सोचे और उन चेहरों को भी पहचाने जिनके हाथो में माचिस की स्लाहिया हैं। 

अंशुमन श्रीवास्तव 

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